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दिगम्बर-केवली भगवान् नोकर्म आहार लेते हैं, कहा भी है किकम्मा हारु असेसहं जीवहं । णोकम्माहारु विभवभावह ॥ लेवाहारु वि दिसइ रुक्यहं । कवलाहारु णरोह तिरीक्खहं ।। ओजाहारु पक्खि संघायहं । मणभोयणु चउदेव निकायहं ॥
(कवि पुष्पदंतकृत महापुराण, संधी ११ वी) यहाँ विभव भाव में "गोकर्म" आहार और मनुष्य और तिर्यंच के लिये कवलाहार बताया है।
यद्यपि केवली भगवान् मनुष्य ही हैं, किन्तु वे “णोकर्म" आहार लेते हैं, कवलाहार नहीं लेते हैं। निद्रा का नोकर्म दही वगैरह पदार्थ हैं, वेदोदय का नोकर्म भोगांग है, वैसे शरीर आदि की अमुक नोकर्म वर्गणा है, केवली भगवान् उनका ही आहार लेते हैं। इसके लिये कहा है कि
आहारदसणेण य, तस्सुवजोगेण ओमकोट्टाए। सादिदरुदीरणाए हवदि हु आहारसण्णा हु ॥१३४॥
आहार देखने से अथवा उसके उपयोग से, और पेटके खाली होने से तथा अशातावेदनीय के उदय और उदीरणा होने पर जीवको नियमसे आहारसंशा उत्पन्न होती है।
(पं० गोपालदासजी बरयाकृत भाषानुवाद) उदयावण्णसरीरोदयेण, तदेह-वयण-चित्तानाम् । णोकम्मवग्गणाणं, गहणं आहारयं नाम ॥६६३॥ आहरदि सरीराणं, तिण्हं एयदर वग्गणाओ। भासा मणाणं णियदं, तम्हा आहारओ भणिओ ॥८६४॥
(गोम्मटसार, जीव काण्ड) माने-औदारिक वैक्रिय आहारक भाषा और मनकी वर्गणाओं का ग्रहण करना, वही आहार है, केवली भगवान् "णोकर्म वर्गणा” का आहार लेते हैं।
जैन-णोकर्म वर्गणा का आहार लेना, उस आहार द्वारा
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