________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
प्रकृति के बिना खोले यथार्थ ज्ञान होना मुश्किल है अतः इनका अलग २ विचार और समन्वय करना चाहिये ।
इसमें भी सबसे पहिले वेदनीय कर्म का विचार करो, कि बाद में और २ कर्म का विचार करना आसान हो जायगा।
दिगम्बर-वेदनीय कर्म का बंध १३ वे गुणस्थान तक, उदय १४ वे गुणस्थान तक, उदीरणा छठे गुणस्थान तक, (गो० क. गा० २७९ से २८१) और सत्ता १४ वे गुणस्थान तक होती है। इसकी शाता और अशाता ये दो प्रकृतियां हैं। १४ वे गुणस्थान तक दोनों प्रकृतियां उदय में रह सकती हैं। यह "जीवविपाकी' कर्मप्रकृति है। जीवविपाको ७८ हैं, जिनमें वेदनीय भी है। केवली भगवान को दोनों वेदनीय रहती हैं। जौर उसी के जरिये ११ परिपह होती हैं। देखिये (१) मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ॥८॥
क्षुत् पिपासा० ॥९॥ एकादश जिने ॥११॥ वेदनीये शेषाः ॥१६॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नेकोनविंशतिः ॥१७॥
(दिगम्बर मोक्षशास्त्र अध्याय ९) २) उक्ता एकादश परीषहाः । तेभ्योऽन्ये शेषा वेदनीये सति
भवन्तीति वाक्यशेषः । के पुनस्ते ? क्षुव-पिपास-शीतोष्ण-दंशमशक-चर्या-शय्या-बध-रोगतृणस्पर्श-मलपरीषहाः।
(आ० पूज्यपाद अपरनाम आ० देवनन्दिकृत सर्वार्थसिद्धि) (३) (जिने) तेरहवें गुणस्थानवति जिनमें अर्थात् केवलि भगवानके (एकादश) ग्यारह परिषह होती है। छद्मस्थ जीवों को बेदनीय कर्म के उदय से १ क्षुधा, २ तृषा, ३ शीत, ४ उष्ण, ५ दंश मशक, ६ चर्या, ७ शय्या, ८ वध, ९ रोग, १० तृणस्पर्श और ११ मल ये ग्यारह परिषह होती है, सो केवली भगवान के भी वेदनीय का उदय है, इस कारण केवलो को भी ११ परिषह होना कहा है।
(श्रीयुत पन्नालालजीकृत मोक्षशास्त्र भाषा टीका
जैनग्रंथ रत्नाकर, ११ वां रस्न, पृष्ट ८३)
For Private And Personal Use Only