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[ २८ ]
मंगर भूलना नहीं चाहिये कि नवम गुणस्थान के पहिले या बाद में पर्याप्त पुरुष को स्त्रीवेद और अपर्याप्तयन का उदय कभी भी नहीं होता है
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यह भी ख्याल में रखना चाहिये कि पर्याप्त स्त्री को भी पुरुषवेद, नपुंसक वेद और श्राहार द्विक का उदय कभी नहीं होता है
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( कर्म गा० ३०० - १०१ )
और नवम गुण स्थान में वेद का उदय विच्छेद होने के पश्चात् वेदि होते हैं।
पुरुष, स्त्री और नपुंसक ये तीनों क्षपक श्रेणी करते हैं । तेरहवें गुण स्थान में पहुँचते हैं किन्तु स्त्री और नपुंसक तीर्थकर नहीं बनते हैं क्योंकि उन दोनों में तीर्थकर नाम की प्रकृति सत्ता से ही नहीं होती है ।
( गोम्मट सार कर्मकांड गा० ३५४ )
थी पुरुसादय चड़दे, पुवं ढं खवेदि थी । संदरसुदये पुण्वं, थी खविदं संद मत्थिति ॥ ३८८ ॥
क्षपक श्रेणी में चढ़ते समय पुरुष नपुंसकवेद का स्त्री नपुंसक वेद का और नपुंसक स्त्रीवेद का प्रथम खात्मा करते हैं । ( कर्म्म०
गा० ३८८ )
वेदे मे संग || ६॥
वेद है, वहां तक "मैथुन संज्ञा " है ।
( गोम्मटसार जीवकाण्ड ग० ६ )
थावर काय पहुदी संढो, सेसा असरणी आदी य । यस्य पढमो, भागोत्ति जिरोहिं खिदिट्ठे ६८४
नपुंसक वेद स्थावर काय मिथ्यादृष्टिम अनिवृत्ति के प्रथम भाग तक होता है और शेष दोनों वेद असंधी पंचेन्द्रिय से अनि
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