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[ १२ मुमकिन है कि प्रा० कुमारसेन ने दिगम्बर अधिकासंघ चलाया।
४-श्रा० पूज्यपाद स्पष्ट करते हैं कियेनात्मना नुभूया हमात्म नैवात्मनात्मनि । सोहं न तम सा नासौ, नैको न द्वौ न वा बहु ॥ २३ ॥
आत्मा आत्म भाव को पाता है तब उसे ज्ञान होता है कि मैं न पुरुष हूँ. न नपुंसक हूँ और न स्त्री हूँ । अर्थात् आत्मा श्रात्मा ही है, और मोक्ष में वही जाता है । पुरुष स्त्री, नपुंसक शरीर मोक्ष में नहीं जाते हैं। - त्यक्त्वैव बहिरात्मानम् ॥ २७ ॥ मैं पुरुष हूं, इत्यादि बहिरात्म भाव को छोड़ो। यो न वेत्ति परं देहात् ।। ३३ ।। दृष्यमानमिदं मूढः, त्रिलिङ्ग मव बुध्यते ॥ ४४ ॥ बचारा कम अक्ल श्रादमी मैं पुरुष हूं, मैं नपुंसक हूं, तू स्त्री है, ऐसा मानता है, जब कि मोक्षगामी श्रात्मा इन लिंगों से रहित है। उसके तो लिंग शानादि हैं।
शरीरे वाचि चात्मानं० ॥ ५४॥ शरीर को प्रात्मा मानना, यह अज्ञानता है । अतः पुरुष मोक्ष जाय, स्त्री नहीं, इत्यादि कहना भी अज्ञानता है।
जीणे स्वदेहे प्यात्मानं, न जीर्ण मन्यते बुधः॥ ६४ ॥ इसके अनुकरण में ऐसा श्लोक भी बन सकता है। स्त्रियो देहे तथात्मानं, न स्त्रियं मन्यते बुधः। स्त्री का शरीर होने से प्रात्मा स्त्री नहीं बनती है। लिग देहाभितं दृष्ट, देह एवात्मनो भवः
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