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[११ ] की अंतिम दशा तक पहुँचती है । और मोक्ष को पानी है । किन्तु अशुद्ध अध्यवसाय की अन्तिम मिा तक नहीं पहुँचती है इसलिय सातवी नारकी में नहीं जा सकती है । यह सप्रमाण बात है कि किसी में उर्ध्वगति की सामय विशष है किसी में अधोगति की। अथवा यो भी कहा जाय कि किसी में बंध की सामर्थ्य विशेष है है किसी में निझरा की, तो भी ठीक है । स्त्रीका शरीर उत्कृष्ट श्रायु बंध के अभाव का उर्ध्व गति के, अधिक सामर्थ्य का, या उत्कृष्ट निमरा शक्ति का नमूना है। स्त्री की अशुद्ध भावना अन्तिम सीमा तक नहीं पहुंचती है।
परमाधामी पुरुष ही होता है स्त्री नहीं होती है, यह समस्या भी स्त्री जाति में श्रान्तरिक क्रूरता न होने का प्रवल प्रमाण
दिगम्बर-स्त्री में शुद्ध भावना की विशेषता है और अशुद्ध भावना की अल्पता या मर्यादा है. इस के लिये प्रमाण
जैन-आज कल का विज्ञान भी उक्त वात को ही पुष्ट करता है। पाश्चात्य विद्वान मानते हैं कि स्त्री नम्र होती है। मातृत्व भावना से ओत प्रोत रहती है। वह सर्वत्र अशान्ति के बजाय शान्ति को ही अधिक पसंद करती है। इस विषय में जनवरी सन् १९३८ ई० के “मोडन रीव्यु" में भिन्न २ विद्वानों के मन प्रकाशित हुए हैं (पृ. २७ ) जिनका सार निम्न प्रकार है।
स्त्री की हर एक अंगोपांग पुरुष की अपेक्षा भिन्न बनायट का है x x इसलिये स्त्रियों के शरीर में मधुरता व नम्रता अधिक पाई जाती है।
शारीरिक कमी होने पर भी स्त्रियों में वीरता व साहस पाया जाता है। जब संकट आता है तब स्त्री दृढ़ रहती है शत्रुओं से
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