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भीमहोबा
* शिवमहिम्नस्तोत्रम् * स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तत्र गजान्तकान्धकान्तकन्तमन्तकान्तक भजे १०॥ ___ भाषार्थ:--सब प्रकार के मंगलों को अधिकता से देनेवाले चौसठ कलारूपी कदम्ब के वृक्ष की मंजरी का रस पीने वाले अर्थात् सर्वकला प्रवीण कामारि त्रिपुरारि भक्त-भयहारी दक्षयज्ञ विध्वंसकारी गजासुरसंहारी अन्धकासर के प्राण हरण करने वाले और काल का भय मिटाने वाले महादेवजी का मैं भजन करता हूँ ॥१०॥
जयत्यदभ्रविभ्रमस्फुरभुजंगमश्वसद्विनिर्गमक्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् । धिमिन्धिमिन्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥
भाषार्थः--नृत्य करते समय अधिक वेग से घूमने पर शिर में लिपटे हुए सपों के श्वास के निकलने से और भी अधिक प्रज्वलित हुई है कराल भाल की अग्नि जिनको और मृदंग की धिमि-धिमि मंगल ध्वनि की वृद्धि के अनुसार अपने ताण्डव नृत्य की गति को बढ़ाने वाले शिवजी महाराज की जय होवे ॥ ११॥ दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोगरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः ।
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