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मरिक निसुणो, नहीं कोई शत्रुंजय तोर्जेजी ॥ २१ ॥ ज्ञान धने निरवाल महाजस, जेहेसो तुमे इण में जी ॥ एह गिरि तीरथ महिमा इणे जगे, प्रगट हो से तुम नामेजी ॥ २२ ॥
॥ ढाल ॥ चोथी ॥ जिनवरशुं मेरो मन ली नोए ॥ ए देशी ॥
॥ सांगली जिनवर मुखथी साचुं, पुंमरिक गण धार रे ॥ पंचकोडी मुनिवरचं एगिरि, एसएल की ध उदार रे ॥ २३ ॥ नमो रे नमो श्री शत्रुंजय गिरि वर, सकल तीरथ मांहे सार रे || दीवो डुरगति दूर निवा रे, कतारे जवपार रे ॥ २४ ॥ नमो० ॥ केवल लही चैत्री पुनम दिन, पाम्या मुक्ति ठाम रे ॥ तदा कालयी पुहवी प्रगटीयुं, पुंरुरिक गिरि नाम रे ॥ २५॥ ॥ नमो० ॥ नयरी अयोध्याथी विहरता पोहोता, ता तजी कूपन जिलंद रे || शव सहस्स लगें षट्खंम साधी, थाव्या भरत नरिंद रे ॥ २६ ॥ नमो ॥ घरें जई मायने पाय लागा, जननी दीए याशीश रे || विमला चल संघाधिप केरी, पोहोचजो पुत्र जगीश रे २७ ॥ || नमो० ॥ जरत विमासे साठ सहस्स सम, साध्या देश अनेक रे || हवे हूं तात प्रत्यें जइ पूकुं, संघप
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