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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५८ शत्रुंजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध का ! मन्दिरों में दर्शन कर साह पौषधशाला ( उपाश्रय ) में गया । वहां पर श्रीविनयमण्डन पाठक विराजमान थे उन को बडे हर्षपूर्वक वन्दन कर सुखप्रश्नादि पूछे । बाद मैं साह कह ने लगा कि " हे सुगुरु ! आज मेरा दिन सफल है जो आपके दर्शन का लाभ मिला । भगवन् पहले जो आपने मुझे जिस काम के करने की सूचना की थी उस के करने की अब स्पष्ट आज्ञा दें । आप समस्त शास्त्र के ज्ञाता और सब योग्य - क्रियाओं में सावधान हैं इस लिये मुझे जो कर्तव्य और आचरणीय हो उस का आदेश दीजिए । लोकों में साधारण वस्तु का उद्धार कार्य भी पुण्य के लिये होना माना गया है तो फिर शत्रुंजय जैसे पर्वत पर जिनेन्द्र जैसे परमपुरुष की पवित्र प्रतिमा के उद्धार का तो कहना ही क्या है ? वह तो महान् अभ्युदय (मोक्ष) की प्राप्ति कराने वाला है । पूज्य ! आप ही का किया हुआ यह उपदेश आप के सन्मुख मैं बोल रहा हूं उस लिये मेरी इस धृष्टता पर क्षमा करें । साह के इस प्रकार बोल रहने पर पाठक जरा मुस्कराये परन्तु उत्तर कुछ नहीं दिया । बाद में उन्हों ने यथोचित सारी सभा के योग्य धर्मोपदेश दिया जिसे सुन कर सब ही खुश और उपकृत हुए । अन्त में कर्मा साह को पाठक ने कहा कि " हे विधिज्ञ ! जो कुछ करना है वह तो तुम सब जानते ही हो । हमारा तो केवल इतना ही कथन है कि अपने कर्तव्य में शीघ्रता करो । अवसर आने पर हम भी अपने कर्तव्य का पालन कर लेंगे। शुभकार्य में कौन मनुष्य उपेक्षा करता है ? मुनि - उचित इस प्रकार के संभाषण को सुन कर व्यंगविज्ञ कर्मा साह ने पाठक के आगमन की इच्छा को जान लिया और फिर से उन को नमस्कार कर वहां से रवाना हुआ । " "" पांच छ ही दिन में साह वहां पहुंचा जहां से शत्रुंजय गिरि के दर्शन हो सकते थे । गिरिवर के दृष्टि गोचर होते ही, जिस तरह मेघ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use Only
SR No.020705
Book TitleShatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1917
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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