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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुजयतीर्थोद्धारप्रबन्ध * * * का * * * ऐतिहासिक सार-भाग । ---- - वंशादि वर्णन। (प्रथम उल्लास ।) इ स प्रबन्ध के प्रारंभ में, प्रबन्धकार ने प्रथम काव्य CASH में, शत्रुजयमण्डन श्रीऋषभदेव भगवान् की प्रार्थना की है। दूसरे पद्य में भगवान् के प्रथम गणधर श्रीपुण्डरीक स्वामी की, जिन के कारण इस पर्वत का ' पुण्डरीक ' नाम प्रसिद्ध हुआ है, स्तवना की गई है। तीसरे काव्य में उल्लेख है कि-इस सिद्धगिरि पर, पूर्वकाल में भरत-आदि महापुरुषोंने, तीर्थंकरादि महात्माओं के उपदेश से अनेक उद्धारकार्य किये हैं इस लिये, इस की उपासना करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है यह जान कर, असंख्य श्रद्धालुओं ने संघ निकाल निकाल कर इस की यात्रायें की हैं। चौथे, पाँचवें और छ । काव्य में भरतादिक जिन जिन उद्धारकों ने ऋषभादिक जिन जिन आप्तपुरुषों के कथन से ( जिन की सूची 'उपोद्घात' में दी गई है । इस के उद्धार किये हैं उन का केवल नाम निर्देश किया गया है और *साधु श्रीकर्मा के किये ____ * “ साधु' शब्द से यहां पर यति-श्रमण का अभिप्राय नहीं है । संस्कृत में 'साधु' का पर्याय श्रेष्ठ-सुपुरुष है। पूर्व काल में जो अच्छे धर्मी और धनी गृहस्थ होते थे वे 'साधु' कहे जाते थे। 'साधु ' ही का प्राकृतरूप ' साहु' है जो अपभ्रंश हो कर साह के रूप में वर्तमान में विद्यमान है। तथा अब भी जो महाजनों को 'साहुकार ' कहते हैं वह संस्कृत 'साधुकार' ( अच्छा कार्य करने बाला) का प्राकृतिक रूप है। For Private and Personal Use Only
SR No.020705
Book TitleShatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1917
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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