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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३० उपोद्घात | भ्राताओं ने पिता के इस पवित्र सन्देश को बड़े आदर के साथ शिरोधार्य किया और उसी समय शत्रुंजय के उद्धार की तैयारी करने लगे। दो वर्ष में मन्दिर तैयार हो गया। उस की शुभ खबर आ कर नौकर ने दी और बधाई मांगी । मंत्री बाहड ने उसे इच्छित दान दिया । फिर मंत्री प्रतिष्ठा की सामग्री तैयार करने लगा । कुछ ही दिन बाद एक आदमी ने आकर यह सुनाया कि पवन के सख्त झपाटों के कारण मन्दिर मध्यमें से फट गया है । यह सुन कर मंत्री बडा खिन्न हुआ और महाराज कुमारपाल की आज्ञा पा कर चार हजार घोडेस्वारों को साथ में ले स्वयं शत्रुंजय को पहुंचा । वहां जा कर कारीगरों से फट जाने का कारण पूछा तो उन्हों ने कहा कि ' मन्दिर के अन्दर जो प्रदक्षिणा देने के लिये ' भ्रमणमार्ग' बनाया गया है उस में जोरदार हवा का प्रवेश हो जाने से, मध्य भाग फट गया है। और यदि यह 'भ्रमणमार्ग' न बनाया जाय तो शिल्पशास्त्र में निर्माता को सन्तति का अभाव होना लिखा है ।' मंत्री ने कहा ' चाहे भले ही मुझे सन्तति न हो परन्तु मन्दिर वैसा बनाओ जिस से कभी तूटने-फटने का भय ही न रहे । ' शिल्पियों ने अपनी बुद्धिमत्ता से मन्दिर के ' भ्रमणमार्ग ' पर शिलायें लगा कर ऐसा बना दिया जिस से न वह किसी तूफान ही का भोग हो सकता है और न सन्तत्यभाव ही का कारण । ( कहते हैं कि ये शिलायें अद्यावधि वैसी ही लगी हुईं हैं ।) इस प्रकार तीन वर्ष में मन्दिर तैयार हो गया । बाद में मंत्री ने पहन से बड़ा भारी संघ निकाला और बहुत धन व्यय कर, सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरि से संवत् १२११+ में अनुपम प्रतिष्ठा करवाई । मेरुतुङ्गाचार्य लिखते हैं Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir + प्रभावक चरित्र में संवत् १२१३ लिखा है शिखीन्दु रविवर्षे (१२१३) च ध्वजारोपे व्यधापयत् । प्रतिमां सप्रतिष्ठां स श्री हेमचन्द्रसूरिभिः || For Private and Personal Use Only
SR No.020705
Book TitleShatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1917
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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