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उपोद्घात mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
mmanimummmmmmmmmmmmmmmm इस कारण इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं । जैनमत से, प्रवर्तमान भारतीय मानव-संस्कृति के कर्ता ये ही आदिपुरुष हैं। इन्हों ने अपने जीवन के अंतिम काल में संसार का त्याग कर श्रमणपना अंगीकार किया और अनेक प्रकारकी तपश्चर्यायें कर कैवल्य प्राप्त किया। अपनी कैवल्यावस्था में अनेकानेक वार ये शत्रुजय पर्वत पर पधारे और इन्द्रादिकों के आगे इस पर्वत की पूज्यता और पवित्रता का वर्णन किया । भगवान् आदिनाथ के पुत्र चक्रवर्ती भरतराज ने इस पर्वत पर एक बहुत विशाल और परम मनोहर सुवर्णमय मंदिर बनवाया और उस में रत्नमय भगवन्मूर्ति स्थापित की। तब ही से यह पर्वत जैनधर्म में परम-पावन स्थान गिना जाने लगा। भगवान् आदिनाथ के प्रथम गणधर और भरतनृपति के प्रथम पुत्र पुण्डरीक नामक महर्षि पाँच-कोटि मुनियों के साथ चैत्री पूर्णिमा के दिन यहां पर मुक्त हुए । इस के स्मरणार्थ प्रति वर्ष इस पूर्णिमा को यहां पर आज भी हजारों जैन यात्रार्थ आते हैं । इन के सिवा नमि-विनमी नाम के विद्याधर दो करोड मुनियों के साथ, द्रविड और वारिखिल्य नाम के दो भाई दश करोड मुनियों के साथ, भरतराज और उनके उत्तराधिकारी असंख्य नृपति, राम-भरतादि तीन करोड मुनि, श्रीकृष्ण के प्रद्युम्न और शाम्ब आदि साढे आठ करोड कुमार, वीस करोड मुनि सहित पांडव भ्राता और नारदादि ९१ लाख मुनि यहां पर मुक्ति को पहुंचे हैं । और भी हजारों ऋषि-मुनि इस पर्वत पर तपश्चर्या कर निर्वाण प्राप्त हुए हैं । अनादि काल से असंख्य तीर्थंकर
और श्रमण यहां पर मोक्ष को गये हैं और जायेंगे। एक नेमिनाथ तीर्थकर को छोड कर शेष सब २३ ही तीर्थकर इस गिरि का स्पर्श कर गये हैं । इस कारण यह तीर्थ संसार में सब से अधिक पवित्र हैं । जो मनुष्य भावपूर्वक एक वार भी इस सिद्धक्षेत्र का स्पर्श कर पाता है वह तीन जन्म के भीतर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । इस तीर्थ में
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