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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८७ ) सर्व विरतोपि भावय नवचपदार्थान् सप्ततत्वानि | जीवसमासान् मुने ? चतुर्दश गुणस्थान नामानि ॥ अर्थ - भो मुने ? तुम सर्व प्रकार हिंसादिक पापों से विरक्त हो तब भी नव पदार्थ, सप्ततत्व, चौदह जीव समास और चौदह गुणस्थानों के स्वरूप को भावो ( विचारो ) णवविहं वंसंपयडदि अव्वंमंदसविहं पमोत्तूण | मेहुण सणासत्तो भमिओसि भवणवे भीमे ॥९८॥ नवविधं ब्रह्मचर्यं प्रकटय अब्रह्मदशविधं प्रमुच्य | मैथुन संज्ञाशक्तः भ्रमितोसि भवार्णवे भीमे ॥ अर्थ - भो साधो ? तुम दश प्रकार की काम अवस्था को छोड़ कर नव प्रकार से ब्रह्मचर्य को प्रकट करो, तुमने मैथुन लम्पटी होकर इस भयानक संसार में बहुत काल भ्रमण किया है स्त्री चिन्ता, स्त्री के देखने की इच्छा, निश्वास, ज्वर, दाह, भोजन से अरुचि, बेहोशी, प्रताप, जीने में संदेह और मरण यह दस अवस्था काम बेदना की हैं स्त्री विषयाभिलाषा त्याग १ अङ्ग स्पर्श त्याग २ कामो द्दीपकरसों का न खाना ३ स्त्री सेवित स्थान आदि पदार्थों को सेवन न करना ४ स्त्रियों के कपोलादिकों को न देखना ५ स्त्रियों का आदर सत्कार न करना ६ अतीत भोगों का स्मरण न करना ७ आगामी के लिये वांछान करना ८ मनोभिलिषित विषयों का न सेवना ९ यह नौ प्रकार ब्रह्मचर्य ग्रहण के हैं भावसहिदोय मृणिणो पावइ आराहणा चउकंच । भावरहियो मुणिवर भमइ चिरं दीह संसारे ।। ९९ ।। भावसहितश्च मुनीनः प्राप्नोति अराधना चतुष्कं च । भावरहितो मुनिवरः भ्रमति चिरं दीर्घसंसारे ॥ अर्थ - जो मुनिपुङ्गव भावना सहित हैं ते चारों ( दर्शन ज्ञान चरित्र और तप ) आराधनाओं को पावे हैं (अर्थात ) मोक्ष पावे हैं । और जो मुनिवर भाव रहित हैं ते इस दीर्घ (पंच परिवर्तन रूप ) संसार में बहुत काल में हैं 1 For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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