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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थ-शब्दों के विकार से उत्पन्न हुवे ( अक्षर रुप परणय) में ऐसे अर्धमागधी भाषा के सूत्रों में जो जिनेन्द्र देवने कहा है सो जैसाही श्री भद्रबहु के शिष्य श्री विसानाचार्य आदि शिष्य परम्परायने जाना है तथा स्वशिष्यों को कहा है उपदेशा है। वही संक्षेप कर इस ग्रन्थ में कहा गया है। वारस अंगवियाण चउदस पूजाविउलविच्छरणं । मुयणाण भदवाहु गमयगुरुभयवउ जयउ ॥३२॥ द्वादशाङ्ग विज्ञानः चतुपेश पूर्वाङ्ग विपुल विस्तरणः । श्रुतज्ञानी भद्रवाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु ॥ अर्थ- जो द्वादश अङ्गों के पूर्ण झाता है और चौदह पूर्वाङ्गो का बहुत है. विस्तार जिनके गमक (जैसा सूत्र का अर्थ है तैसाही वाक्यार्थ होवे तिस के शाता)के गुरु ( प्रधान ) और भगवान् (इन्द्रादिक कर पूज्य ) अन्तिम श्रुतज्ञानी ऐसे श्री भद्रवाहु स्वामी जयवन्त होहु उनको हमारा नमस्कार होवो. । पांचवीं पाहुड। भाव प्राभृतम् । मङ्गला चारणम् . णपिऊण जिणवरिंदे णरमुर भवाणिंद वंदिए सिद्धे । वोच्छामि भाव पाहुड मवससे संजदे सिरसा ॥१॥ नमस्कृत्वा जिनवरेन्द्रान् नरसुर भवनेन्द्रवन्दितान् सिद्धान् । वक्ष्यामि भावप्राभृतम्-अवशेषान् संयतान् शिरसा ॥ अर्थ- नरेन्द्र सुरेन्द्र और भवनेन्द्र (नागेन्द्र ) कर वन्दनीय (पूज्य ) ऐसे जिनेन्द्रदेव को सिद्ध परमेष्ठी को तथा आचार्य उपाध्याय और साधु परमेष्टी को मस्तक नमाय नमस्कार करिके भाव प्राभृत को कहूंगा ( कहता हूं सरसा ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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