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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २३ ) अर्थ - १ निशङ्कित अर्थात जैन तत्वों में शंका न करना २ निःकाङ्क्षित अर्थात इन्द्रिय भोगों की प्राप्ति के लिये वांछा न करना ३ निर्विचिकित्सा अर्थात् व्रती पुरुषों के शरीर से ग्लानि न करना ४ अमूढं दृष्टि अर्थात् मिथ्यामार्ग को देखा देखी उत्तम न समझना ५ उपगूहन अर्थात् व्रती पुरुष यदि अज्ञानता आदिके कारण कोई दोष कर लेवें तो उन दूषणों को प्रकट न करना ६ स्थिती करण अर्थात् रत्नत्रय से डिगते हुवों को फिर धर्म में स्थिर करना ७ वात्सल्य अर्थात् जैन धर्मीयों से स्नेह रखना ८ प्रभावना अर्थात् ज्ञान तप और वैराग्य से जैन धर्म के महत्व को प्रकट करना ये सम्यक्त्व के आठ अङ्ग हैं । तं चैव गुणविशुद्धं जिण सम्मत्त सुमुक्खठाणाए । जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मत्त चरणचारितं ॥ ८ ॥ तच्चैव गुणविशुद्धं जिन सम्यकुत्वं सुमोक्षस्थानाय | यच्चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्व चरणचरित्रम् ॥ अर्थ - जो कोई निश्शङ्कितादिगुण सहित जिनेन्द्र के श्रद्धान को ज्ञान सहित परम निर्वाण की प्राप्ति के लिये आचारण करता है सो पहला सम्यक्त्व चरण चारित्र है । भावार्थ - ज्ञानी पुरुष सर्वज्ञ भाषिततत्वार्थ को निशंकादिक आठ अङ्गों सहित श्रद्धान करे तो उसके सम्यक्त्व चरण चारित्र अर्थात पहला चारित्र होता है । सम्मत चरण सुद्धा संजम चरणस्स जइव सुपसिद्धा । णाणी अमूढ दिट्ठी अचिरे पावन्ति णिव्वाणं ।। ९ ।। सम्यक्त्व चरणशुद्धा संयम चरणस्य यदि वा सुप्रसिद्धा । ज्ञानिनः अमूढ दृष्टयः अचिरं प्राप्नुवन्ति निर्वाणम् || अर्थ -जो सम्यक्त्व चरण चारित्र में शुद्ध हैं अर्थात जिनका सम्यक्त विशुद्ध है और संयम के आचरण में प्रसिद्ध हैं अर्थात संयम को पूर्ण रूप पालते हैं वे ज्ञानवान पुरुष मूढ़ता रहित होते हुवे थोड़ेही समय में निर्वाण को पाते हैं 1 For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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