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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११८ ) पंच महन्वय जुत्तो पंच समिदीस तासु गुत्तीसु । रयणत्तय संजुत्तो झाणं झयणं सया कुणह ॥ ३३ ॥ पञ्चमहाव्रत युक्तः पञ्च समितिषु तिस्टषु गुप्तिषु । रत्नत्रय संयुक्तयः ध्यानाऽध्ययनं सदा कुरु ।। अर्थ-भो भव्यो ? तुम पांच महाव्रतों के धारक होकर पांच समति और तीन गुप्ति में लीन होकर और रत्नत्रय कर संयुक्त होते हुवे ध्यान और अध्यायन सदाकाल करो। रयणत्तय माराह जीवो आराहओ मुणेयव्यो । आराहणा विहाणं तस्स फलं केवलं गाणं ॥ ३४ ॥ रत्नत्रय माराधयन् जीव आराधको मुनितव्यः । आराधना विधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् ॥ अर्थ-जो रत्नत्रय को आराधे ( सेवै ) है वह आराधक है ऐसा जानना और यही आराधना का विधान अर्थात सेवन करना है, तिसका फल केवल झान है। सिद्धो सुद्धो आदा सम्पराहू सव्व लोय दरसीयं । सो जिणवरेहिं भणियो जाण तुम केवलं गाणं ॥ ३५ ॥ सिद्धः शुद्धः आत्मा सर्वज्ञः सर्व लोक दर्शी च ।। स जिनवरैः भणितः जानीहि त्व केवलं ज्ञानम् ॥ अर्थ-यह अत्मा सिद्ध है कर्म मलकर रहित होने से शुद्ध है सर्वश है और सर्वलोक अलोकको दखने वाला है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है इसी को तुम केवल शान जानो अर्थात अभेद विविक्षा कर आत्मा को केवल ज्ञान कहा है, ज्ञान और आत्मा के भिन्न प्रदेश नहीं हैं जो आत्मा है सोही शान है और जो शान है सोई आत्मा है। रयणत्यपि जोई आराहइ जोहु जिणवर मरण । सो झायादि अप्पाणं परिहरदि परं ण संदेहो ॥ ३६ ॥ रत्नत्रयमपि योगी आराधयति यः स्फुटं जिनवरमतेन । स ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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