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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १०६ ) मोहमयगारवेहिं यमुक्काजे करुण भावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभ हणंति चारित्तखग्गेण ॥१५९॥ मोहमदमारवैः च मुक्ताये करुणाभावसंयुक्ताः । ते सर्वदुरितस्तंभ धन्ति चारिश्र खड्गेन ॥ अर्थ-मोह अर्थात् पुत्र मित्र कलित्र धन आदि पर बस्तुओं में नेह करना । मद अर्थात् ज्ञान आदि के प्राप्त होने पर गर्व करना । गारव अर्थात् अपनी बड़ाई प्रकट करना, जो मुनिवर इन से अर्थात् मोह मद गारव से रहित हैं और करुणा भाव सहित हैं वेही मुनि चारित्र रूपी खग से समस्त पाप रूपी स्तम्भ को हने हैं । गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणेणि सायरमुणिदो। तारावालि परि कालो पुण्णिम इंदुव्व पवणयहे ॥१६॥ गुणगण मणि मालया जिनमत गगने निशाकर मुनीन्द्रः । तारावलि परिकलितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे । अर्थ-जैसे आकाश में तारा नक्षत्रों से वेष्टित पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभायमान होता है तैसे ही जिन शासन रुपी आकाश में गुण समूह अर्थात् २८ मूल गुण १० धर्म ३ गुप्ति ८४ लाख उत्तर गुण की मणिमाला से मुनीश्वर रुपी चन्द्रमा शोभायमान होते हैं । चक्कहर राम केसव सुरवर जिण गणहराई सौक्खाई। चारण मुणिरिद्धिओ विसुद्ध भावाणरा पत्ता ॥१६॥ चक्रधरराम केशव सुरवर जिनगणधरादि सौख्यानि । चारण मुणि ऋद्धीः विशुद्ध भावा नरा प्राप्ताः ।। अर्थ-विशुद्ध भावों के धारक मुनिवर ही चक्रवर्ती, राम, वासुदेव, इन्द्र, अहमिन्द्र, अहन्त, गणधर, आदि उत्तम पदों के सुखों को तथा चारण मुनियों की ऋद्धि ( आकाशगामिनी आदि ६४ ऋद्धि ) को प्राप्त हुई हैं। सिव मजरामरलिंग मणेवम मुत्तमपरम विमलमतुलं । पत्तावर सिद्धिमुह जिण भावण भाविया जीवा ॥१२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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