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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना युक्त्यनुशासन ६४ पद्योंका एक संक्षिप्त स्तोत्र है; परन्तु जैसा कि पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्यने लिखा है, इसका प्रत्येक पद्य इतना दुरूह और गम्भीर है कि प्रत्येकके व्याख्यानमें एक-एक स्वतन्त्र ग्रन्थकी रचना हो सकती है। विद्यानन्दिने अपनी व्याख्यामें इन्हीं पद्योंका संक्षेपमें रहस्योद्घाटन किया है । युक्त्यनुशासनालङ्कारका प्रकाशन वि० सं० १९७७ में 'माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला' से हुआ था, किन्तु अब अप्राप्य है। ४. विद्यानन्दिमहोदय-यह ग्रन्थ अनेक प्रयत्नोंके बाद भी अबतक उपलब्ध नहीं हो सका। स्वयं विद्यानन्दि तथा अन्य आचार्योंके उल्लेखोंके आधारपर यह कहा जा सकता है कि यह विशालकाय एवं बहविषयक्ति अपूर्व ग्रन्थ होना चाहिए। स्वयं विद्यानन्दिने श्लोकवातिक तथा अष्टसहस्री-जैसे विशालकाय ग्रन्थों में चर्चित कई विषयोंको विस्तारके साथ 'विद्यानन्दिमहोदय' में देखनेका परामर्श दिया है। वादिदेवसूरिने विद्यानन्दिमहोदयको निम्न पंक्तियां उद्धृत की है "महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते' इति वदन ( विद्यानन्दः ) संस्कारधारणयोरैकार्थ्यमचकथत् ।" - इस महान् ग्रन्थके प्राप्त होनेकी आशा और प्रयत्न रखना चाहिए । ५. आप्तपरीक्षा-आप्तपरीक्षामें, जैसा कि इसके नामसे प्रकट है 'आप्त' की परीक्षा की गयी है। न्यायको शैलीमें समन्तभद्रको आप्तमीमांसाके बाद यह पहला मौलिक ग्रन्थ है, जिसमें नैयायिकादिसम्मत ईश्वर, सांख्याभिमत कपिल, बौद्धाभिमत सुगत, अद्वैतके परमपुरुष एवं जैनोंके अर्हन्तकी परीक्षा करके उनमेंसे सच्चे 'आप्त'को सिद्ध किया गया है। ___ आप्तपरीक्षाकी मूल प्रेरणा आप्तमीमांसा तथा रचनाका आधार निम्न पद्य है "मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥" इस पद्यको निश्चल भूमिकापर आप्तपरीक्षाका विशाल प्रासाद निर्मित हुआ है। आप्तपरीक्षा सर्वप्रथम पत्रपरीक्षाके साथ 'सनातन जैन ग्रन्थमाला' में १९१३ में प्रकाशित हुई थी; इसके बाद सन् १९३० में जैन-साहित्य प्रसारक कार्यालय, बम्बईसे केवल आप्तपरोक्षाका पुनः मुद्रण हआ। पुनः सन् १९४९ में 'वोरसेवामन्दिर' से पं० दरबारीलाल जो कोठिया न्यायाचार्य-द्वारा सुसम्पादित होकर महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना आदि तथा हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हुई । विद्यानन्दिके सभी ग्रन्थोंके ऐसे प्रामाणिक एवं सर्वोपयोगी संस्करण अपेक्षित हैं। ६. प्रमाणपरीक्षा-जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे प्रकट है, इसमें प्रमाणकी परीक्षा की गयी है। प्रमाणका ‘सम्यग्ज्ञानत्व' लक्षण करके उसके भेद, प्रभेद, विषय, फल तथा हेतुओंकी विस्तृत एवं सुसम्बद्ध रचना की गयी है । हेतु-भेदोंके निदर्शक कुछ महत्त्वपूर्ण संग्रहश्लोकोंको भी उद्धत किया गया है जो किन्हीं पूर्ववर्ती जैनाचार्योंके प्रतीत होते हैं । विद्यानन्दिने इसकी रचना अकलंकदेवके प्रमाणसंग्रह आदि ग्रन्थोंसे प्रेरणा एवं पृष्ठभूमि लेकर की होगी। प्रमाणपरीक्षा सन् १९१४ में 'सनातन जैन ग्रन्थमाला से आप्तमीमांसाके साथ मुद्रित हुई थी। इसका हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसाकी तरह सुसम्पादित संस्करण अपेक्षित है। १. "इति परीक्षितमसकृद्विद्यानन्दमहोदये ।"-तत्त्वार्थश्लो०, पृ० २७२ । "यथागमं प्रपञ्चेन विद्यानन्दमहोदयात् ।"-वही, पृ० ३८५। "इति तत्त्वार्थालकारे विद्यानन्दमहोदये च ।"-अष्टस०, २९० । २. स्याद्वादरत्नाकर, पृ० ३४९ । ३. आप्तपरीक्षा, का०३ । For Private And Personal Use Only
SR No.020664
Book TitleSatyashasan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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