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ग्रन्थमाला सम्पादकीय
बड़े ही बात है कि गत बीस-पचीस वर्षोंसे जैन न्यायविषयक अनेक प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशमें आये हैं जिनसे न केवल जैन दर्शनका यथार्थ स्वरूप प्रकट होता है, किन्तु भारतीय चिन्तनको गहराई, सूक्ष्मता और विशालताका भी अच्छा परिचय प्राप्त होता है ।
जैन न्यायकी परम्पराको विशेष व्यवस्था और दृढ़ता प्रदान करनेका श्रेय आप्तमीमांसा के कर्ता समन्तभद्र एवं न्यायावतार और सम्मतितर्कके कर्ता सिद्धसेनको है जिनका पूज्यपादने अपने व्याकरण में सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। यद्यपि पूर्वोक्त दोनों आचार्योंके कालक्रम व पूर्वापरत्व के सम्बन्ध में मतभेद है, तथापि इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने समस्त जैन न्यायकी परम्पराको प्रभावित किया है ।
समन्तभद्रकी कृतिको अकलंकने अपनी अष्टशती द्वारा अलंकृत किया और विद्यानन्दिने अष्टसहस्री रचकर उनके न्यायविवेचनको चरम सीमापर पहुँचाया। प्रस्तुत सत्यशासन-परीक्षा भी इन्हीं विद्यानन्दिकी कृति है जो अव प्रथम वार प्रकाश में लायी जा रही है। दुर्भाग्यतः यह रचना अधूरी है । स्वर्गीय डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य इसके शेष अंशकी खोजमें अपने अन्त समय तक लगे रहे। इसीलिए वे इसे अपने जीवनकाल में प्रकाशित भी न देख सके । प्रसन्नताकी बात है कि श्री गोकुलचन्द्र जैनने इसका सम्पादन अपने हाथ में लेकर इसे वर्तमान रूपमें प्रस्तुत किया । जिन प्रतियोंसे यह सम्पादन कार्य हुआ है वे सभी अपूर्ण हैं और एक ही प्रतिको प्रतिलिपियाँ मालूम पड़ती हैं, इस कारण इसमें कुछ त्रुटियाँ व कमियाँ रह जाना स्वाभाविक है पर आशा है अब प्रस्तुत व्यवस्थित रूपमें यह रचना आ जानेसे इसकी त्रुटियों आदिका शोधन भी क्रमश: सरलतापूर्वक किया जा सकेगा ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में जो आलोचनात्मक सैद्धान्तिक विवेचन पाया जाता है उसका विद्वत्तापूर्ण सुन्दर परिचय डॉ० नथमल टाटिया, डायरेक्टर, प्राकृत जैन शोधसंस्थान, वैशाली ने अँगरेजीमें लिखकर इस प्रकाशनको बहुत उपयोगी बनाया है । इसलिए हम उनके विशेष आभारी हैं ।
भारतीय ज्ञानपीठ की मूर्तिदेवी ग्रन्थमालासे जैन न्यायविषयक अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं जिनमेंसे कुछ प्रथम बार ही प्रकाशमें आये हैं । अब समय आ गया है कि उक्त समस्त रचनाओंका आलोडन करके भारतीय न्यायशास्त्रको जैन धर्मकी देनका यथोचित मूल्यांकन किया जाये। श्री शान्तिप्रसाद जैन तथा उनकी विदुषी पत्नी श्रीमती रमारानी इस प्राचीन शास्त्रीय साहित्यके उद्धार और प्रकाशन में जो आर्थिक उदारता दिखला रहे हैं उसके लिए वे साहित्यिक संसारके विशेष धन्यवाद के पात्र हैं । ग्रन्थमाला के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्र जैनका इस दिशा में प्रयास प्रशंसनीय है । इसी सुसंयोग के बलपर आशा की जाती है कि जैन साहित्यकी जो अपार निधि अभी भी उपेक्षित पड़ी है वह धीरे-धीरे प्रकाश में आकर देशके सांस्कृतिक भण्डारको सुसमृद्ध बनायेगी ।
जबलपुर
हो० ला ० जैन, आ० ने० उपाध्ये, कोल्हापुर
ग्रन्थमाला सम्पादक
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