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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना २९ लिए जिस उन्नत सुमेरुका निर्माण किया उसकी पृष्ठभूमि में आगमिक मूल्योंसे लेकर उमास्वाति, समन्तभद्र, सिद्धसेन आदि सभी आलोकित हो उठे। इन पूर्वाचार्योंके चिन्तनको पल्लवित और पुष्पित करनेवाले अकलंक जैन-न्यायके प्रस्थापक आचार्य सम्राट् बन गये । धर्मकीति और कुमारिलके खण्डनका सयुक्तिक उत्तर देकर अकलंकने जैन-न्यायको भारतीय न्याय-शास्त्र के इतिहास में मूर्धन्य बना दिया । अकलंक-न्यायको सम्पूर्ण रूपमें आत्मसात् करनेवाले आचार्य विद्यानन्दिको चिन्तनका एक अपूर्व भाण्डागार विरासत में मिला । कुन्दकुन्द और उमास्वातिका विशुद्ध तत्त्वज्ञान, समन्तभद्र और सिद्धसेनकी प्रसन्न तर्कशैली तथा भट्ट अकलंकका अपराजेय पाण्डित्य विद्यानन्दिको पैतृक सम्पत्तिकी धरोहर की तरह प्राप्त हुए । अपनी तलस्पर्शिनी प्रज्ञा के बलपर सुयोग्य उत्तराधिकारीकी तरह एक-एक कणको सुरक्षा के लिए विद्यानन्दिने एक ऐसे महाप्राकारका निर्माण किया, जिसके सिंहद्वार के सामने पहुँचते ही अभिमानीका मान चूर-चूर हो जाये । विद्यानन्दि अकलंकके साक्षात् शिष्य रहे हों या नहीं, किन्तु उन्हें अकलंककी जो विरासत मिली उससे वे अकलंकके उत्तराधिकारी अवश्य बन गये । अकलंकका समस्त चिन्तन, भाव, भाषा और शैली विद्यानन्दिको उपजीव्य बन गयी । अकलंकको बौद्ध दार्शनिकोंका सामना करने में अत्यधिक आयास करना पड़ा था, किन्तु उस आयासके प्रतिघातसे बौद्धन्याय को ऐसा धक्का लगा कि कमसे कम वह विद्यानन्दिके सामने तो मुँह नहीं हो उठा सका। यही कारण है कि अकलंक के ग्रन्थोंमें बौद्ध सिद्धान्तोंका जितना खण्डन है, उतना विद्यानन्दिके ग्रन्थों में नहीं । विद्यानन्दको सम्भवतया धर्मकीर्तिके शिष्योंको अपेक्षा कुमारिलके उत्तराधिकारियों से अधिक निपटना पड़ा; यही कारण है कि विद्यानन्दिका शास्त्र मीमांसा और वैशेषिक सिद्धान्तोंके खण्डनसे भरा पड़ा है। इतना होनेके बाद भी सम्भवतया विद्यानन्दिको परवादियोंका उतना मुकाबला नहीं करना पड़ा जितना अकलंकको करना पड़ा था; इसी कारण अकलंकके द्वारा प्रस्थापित प्रमेयोंको विस्तार के साथ समझानेका उन्हें पर्याप्त अवसर प्राप्त हो गया। अकलंकके एक-एक शब्दको विद्यानन्दिने अपनी प्रज्ञाके प्रकाशसे ऐसा आलोकित कर दिया कि युगों-युगों तक वह आकाश दीपका काम करता रहे। जिस युग में विद्यानन्दका आविर्भाव हुआ उस युगमें शास्त्र रचनाकी एक विशेष शैली निश्चित हो चुकी थी। किसी भी अन्य दर्शन के सिद्धान्तको पूर्वपक्षके रूपमें अपने ग्रन्थ में प्रस्थापित करके उत्तरपक्ष में उसका खण्डन करना तथा तत्पश्चात् स्व-सिद्धान्तका स्थापन करना । शास्त्र रचनाकी इस पद्धतिने दार्शनिक असहिष्णुता के उस युग में भी शास्त्रकारको अन्यान्य दर्शनोंका अध्ययन करना अनिवार्य बना दिया था। इस अनिवार्यताका भी विद्यानन्दिके व्यक्तित्वनिर्माण में उतना ही महत्त्वपूर्ण योगदान मानना चाहिए जितना अकलंक की धरोहरका | विद्यानन्द ने अपने युगकी इस अनिवार्य आवश्यकताको दृष्टिमें रखते हुए प्रत्येक दर्शनके मूल ग्रन्थोंका अन्तः प्रविष्ट अध्ययन किया और उनमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंके लचीलेपनको सामने लाकर उसपर तर्कका भयंकर वज्र प्रहार किया । विपुल विमल प्रज्ञाके धनी इस महान् दार्शनिकका चिन्तन अपने युगपर सहस्ररश्मिके प्रकाशकी तरह ऐसा छा गया कि भारतीय चिन्तनके इतिहाससे उसे ओझल करनेकी कल्पना मात्र से भी सम्पूर्ण ज्ञानाकाश तिमिराच्छन्न-सा होने लगता है । [२] विद्यानन्दिका समय आचार्य विद्यानन्दिने अपने किसी भी ग्रन्थमें अपने समयका निर्देश नहीं किया इसलिए उनके ग्रन्थोंके अन्तःपरीक्षण तथा अन्य पूर्वोत्तर आचार्योंके उल्लेखोंके आधारपर उनके समयका निर्णय किया जाता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020664
Book TitleSatyashasan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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