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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रस्तावना १३ ९. निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे परमाणुओंका प्रत्यक्ष नहीं हो सकता; क्योंकि अविसंवादरहित होनेके कारण निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अनिश्चयात्मक है; अतएव अप्रमाण है। ६ १०-५०. इन वाक्यखण्डोंमें विस्तारके साथ परमाणु-प्रत्यक्षका खण्डन है । [ सांख्यशासन-परीक्षा] [पूर्वपक्ष ] १. यह समस्त संसार प्रधान (प्रकृति) मय है। सत्त्व, रज और तमोगुणकी साम्यावस्थाका नाम प्रधान (प्रकृति ) है। ६२. सत्त्व गुण इष्ट, प्रकाशक तथा लघु होता है। इसके उदयसे प्रशस्त ही परिणाम होते हैं। रजोगुण चल, अवष्टंभक, दारक और ग्राहक होता है । इसके उदयसे राग परिणाम होते हैं । गुरु, आवरण करनेवाला तथा अज्ञानरूप तमोगुण है । इसके उदयसे द्वेषके कारण अज्ञानरूप ही परिणाम होते हैं । इन तीनों गुणोंको साम्यावस्था प्रकृति है । प्रधान व बहुधानक इसके नामान्तर हैं । .६ ३. प्रकृति ही संसारको उत्पन्न करनेवाली है। प्रकृतिसे महान्, महान्से अहंकार, अहंकारसे पंचतन्मात्रा, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और मन ये षोडशगण तथा पंचतन्मात्राओंसे पंचभूतोंकी उत्पत्ति होती है। ४. ये चौबीस तत्त्व हैं। पच्चीसवां जीव तथा छब्बीसवाँ मुक्त है। यह निरीश्वर सांख्योंकी मान्यता है । सेश्वर सांख्योंके अनुसार छब्बीसा महेश्वर है तथा सत्ताईसवाँ मुक्त है। $ ५. प्रकृति और पुरुषके भेद-विज्ञानसे मोक्ष होता है। पंचविंशति तत्त्वोंका परिज्ञान मोक्षका कारण है। [ उत्तरपक्ष ] ६६-७. यह सांख्यमत दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) विरुद्ध है-सांख्योंने प्रकृतिको नित्य तथा सर्वव्यापी माना है। इसका अर्थ है कि सब कुछ सभी जगह रहना चाहिए 'सर्वं सर्वत्र वर्तते'। किन्तु प्रत्यक्षसे ऐसा ज्ञात नहीं होता। ८-१०. 'सबका सब जगह सद्भाव रहनेपर भी जिसका जहाँ आविर्भाव होता है वही वहाँ दृष्टिगोचर होता है ।' सांख्योंका यह कथन युक्त नहीं; क्योंकि यह आविर्भाव किसी भी तरह सिद्ध नहीं होता। ६ ११. इसी तरह तिरोभाव मानना भी उचित नहीं; क्योंकि वह भी आविर्भावकी तरह सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार आविर्भाव और तिरोभावके असिद्ध होनेसे प्रधान भी असिद्ध हो जाता है। उसके अभावमें महत् आदि कुछ भी नहीं बनेगा। १२. इसके बाद भी यदि महदादिका निरूपण करें तो प्रश्न होगा कि यह प्रधानका कार्य है या परिणाम ? कार्य माननेपर सर्वथा सत् अथवा सर्वथा असत् कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। $ १३. परिणाम माननेपर प्रश्न होगा कि परिणाम प्रकृतिसे भिन्न हैं या अभिन्न ? अभिन्न माननेपर क्रमसे वृत्ति नहीं होगी और भिन्न माननेपर प्रकृतिके साथ उनका सम्बन्ध नहीं माना जा सकता। १४. प्रकृतिको परिणामोंका उपकारी मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि अनेक दोष आते हैं । १५. यदि यह माने कि परिणाम प्रकृतिसे न भिन्न है न अभिन्न, प्रकृति ही महदादि रूपमें परिणत होतो है; तो यह मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि इससे स्वयं सांख्यसम्मत नित्यैकान्तका विरोध होता है । १६. इस तरह अनेक बाधकोंके होनेसे प्रकृति (प्रधान ) सिद्ध नहीं होती। भोग्य प्रकृतिके अभावमें भोक्ता पुरुष भी सिद्ध नहीं होता । इस प्रकार सांख्याभिमत सभी तत्त्व शून्य हो जाते हैं। $ १७-१८. सांख्यमत इष्ट विरुद्ध भी है-कथंचित् नित्यत्व साधक अनुमानसे कूटस्थ नित्य पुरुषका विरोध आता है। अनुमान इस प्रकार है : For Private And Personal Use Only
SR No.020664
Book TitleSatyashasan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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