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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 2 सत्यशासन-परीक्षा जायेगा। यदि उसे मिथ्या मानें तो मिथ्या अनुमानसे साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। दूसरोंके द्वारा माने गये पक्ष आदिके भेद - प्रतिभासको अमिथ्या मानकर उससे प्रत्यक्षको मिथ्या सिद्ध करनेमें अनवस्था आयेगी । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २९. प्रत्यक्षमें प्रतीत होनेवाले क्रिया-कारक भेद भ्रान्त हैं, इसलिए वे ब्रह्म के बाधक नहीं बन सकते; ऐसा मानने पर बाध्य और बाधकको द्वैत मानना पड़ेगा । $ ३०. इस तरह अभ्रान्त प्रत्यक्ष-द्वारा प्रसिद्ध क्रिया- कारकका भेद परमब्रह्माद्वैतको दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) विरुद्ध सिद्ध करता है | ३१. उपर्युक्त विवेचनसे ही परमब्रह्माद्वैतशासन इष्ट विरुद्ध भी सिद्ध होता है; क्योंकि ऊपर अनुमान और आगमके द्वैतकी चर्चा की जा चुकी है। द्वैतके बिना अद्वैतकी सिद्धि उसी तरह सम्भव नहीं है जिस तरह हेतुके बिना साध्यकी सिद्धि; क्योंकि प्रतिषेध्यके बिना प्रतिषेध नहीं होता । ३२. इसके अतिरिक्त ब्रह्मवाद में तत्त्वोपप्लवकी तरह पुण्य-पाप, सुख-दुःख, इहलोक-परलोक, विद्याafaar तथा बन्ध मोक्षकी व्यवस्था नहीं बनेगी । ६ ३३. इस तरह ब्रह्मवादियों का सारा कथन वन्ध्यापुत्र के स्वरूप-वर्णनको तरह व्यर्थ ही है, क्योंकि किसी भी प्रमाणसे ब्रह्माद्वैत सिद्ध नहीं होता। यदि किसी प्रमाणसे मानें तो प्रमाण और प्रमेयके द्वैतका प्रसंग आयेगा । भ्रान्त प्रमाणसे अद्वैतकी सिद्धि माननेपर स्वप्न में देखे गये धुएँसे वास्तविक अग्निकी उपलब्धिका भी प्रसंग आयेगा । ६ ३४. एक बात यह भी है कि यदि एक ही परमब्रह्म हैं तो वहीं क्यों नहीं सर्वप्रथम ज्ञात होता और यदि संसार - ( प्रपञ्च खर- विषाणकी तरह सर्वथा अभाव रूप है तो वही क्यों अहमहमिकतया प्रतीत होता है ! यह कहना ठीक नहीं कि अविद्या के कारण ऐसा होता है; क्योंकि अविद्याको यदि सत् माना जायेगा तो ब्रह्म और अविद्याका द्वैत हो जायेगा; यदि असत् मानें तो वह मिथ्या प्रतीतिका कारण नहीं बन सकती और यदि सत्-असत् से भिन्न अनिर्वचनीय मानें तो यह उपदेश नहीं बन सकता कि -- ' अविद्या संसार दशामें है, क्योंकि संसार अविद्याका विलास है; मुक्ति दशामें नहीं; क्योंकि मुक्ति अविद्या निवृत्ति रूप है । यह कहना कि अविद्या अनिर्वचनीय है, उसी तरह है जिस तरह यह कहना कि 'मैंने जीवन भर के लिए मौन धारण किया है, मेरे पिता ब्रह्मचारी हैं, मेरी मां वन्ध्या हैं' इत्यादि । ३५-४१ इन सात वाक्य खण्डोंमें अविद्याका विस्तार के साथ खण्डन किया गया है । [ शब्दाद्वैतशासन-परीक्षा ] ४२. परमब्रह्माद्वैत के उपर्युक्त विवेचनसे शब्दाद्वैत का भी निराश हो जाता है। परमब्रह्माद्वैतकी तरह इसमें भी पूर्वोक्त दोष आते हैं, केवल प्रक्रिया मात्रका भेद है; इसी कारण उसका पुनः विस्तार नहीं किया गया । [विज्ञानाद्वैतशासन-परीक्षा ] [ पूर्वपक्ष ] ६१-५ सम्पूर्ण ग्राह्य ग्राहकाकार ज्ञान भ्रान्त हैं । जिस प्रकार स्वप्न और इन्द्रजाल आदि ज्ञान भ्रान्त होते हैं उसी प्रकार ग्राह्य ग्राहकाकार आदि प्रत्यक्ष भी भ्रान्त हैं । भ्रान्त, प्रत्यक्ष आदिके द्वारा जाने गये बाह्य अर्थ वास्तविक नहीं हैं अन्यथा स्वप्नप्रत्यक्षको भी वास्तविक मानना होगा । इस तरह बाह्य अर्थ असम्भव है । स्वसंवित्ति (विज्ञान) हो खण्डशः प्रतिभासित होती हुई समस्त वेद्य-वेदक व्यवहारको कराती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु क्षौर आकाश स्वसंवित्तिसे भिन्न कुछ भी नहीं हैं। एक संवित्ति ही नील, पीत, सुख, दुःख आदि अनेक प्रकारसे ज्ञात होती है । इसलिए बाह्य अर्थके अभाव में विज्ञानाद्वैत ही सिद्ध होता है । For Private And Personal Use Only
SR No.020664
Book TitleSatyashasan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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