________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्रत का अभाव, व्यभिचारात्तु भर्तुः स्त्री लोके प्राप्नोति / गया, खर्च किया गया 2. बर्बाद किया गया, गीताम् —मनु० 5 / 164, वाङ्मनः कर्मभिः पत्यो / क्षयग्रस्त / व्यभिचारो यथा न मे --रघु० 15 / 81, याज्ञ. 1171 व्यर्थ (वि०) [विगतोऽर्थों यस्मात्-प्रा० ब०] 1. अनु6. असंगति, अनियमितता, अपवाद 7. (तर्क० में) पयोगी, निरर्थक, विफल, अलाभकर-व्यर्थं यत्र आभासी हेतु, हेत्वाभास, साध्य के न होने पर भी कपीन्द्रसख्यमपि मे-उत्तर० 3145 2. अर्थहीन, हेतु की विद्यमानता। निरर्थक, बेकारी। व्यभिचारिणी [व्यभिचारिन्+ङीप् ] असती स्त्री, | व्यलोक (वि०) [ विशेषेण अलति---वि+अल+कीकन् ] परपुरुषगामिनी स्त्री। ___ 1. मिथ्या, झूठा 2. कुत्सित, अनभिमत, असुखद 3. जो व्यभिचारिन (वि.) [व्यभिचार+इनि] 1. भटका मिथ्या न हो-शि० ५.१,-क: 1. स्वेच्छाचारी हुआ, भूला हुआ, पथभ्रष्ट, भ्रान्त, नियम भंग करने 2. गांडू, लौण्डा,-कम् कोई भी अप्रिय या असुखद वस्तु, वाला 2. अनियमित, असंगत 3. असत्य, मिथ्या -दे० अप्रियता-इत्थं गिरः प्रियतमा इव सोऽव्यलीकाः शश्राव अव्यभिचारिन् 4. श्रद्धाहीन, जो ब्रह्मचारी न हो, सूततनयस्य तदा व्यलीकाः-शि० 5 / 1 2. बेचैनी का परस्त्रीगामी, (पुं० ----व्यभिचारिभावः संचारिभाव, कारण, पीड़ा, शोक या रंज का कारण-सुतनु हुदसहकारी भाव (विप० स्थायी भाव) यद्यपि स्थायी यात्प्रत्यादेशव्यलोकमपैतु ते--- श० 7 / 24, कि० 31 भावों की भाँति यह सहकारी भाव रस का कोई 19, कु० 3 / 25, रघु० 4 / 87 3. दोष, अपराध, आधारभूत रूप नहीं बनाते, फिर भी यह प्रवहमान अतिक्रमण, अनुचित कार्य, सव्यलीकमवधीरितखिन्न रस के पोषक हैं, अतः प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह प्रस्थितं सपदि कोपपदेन-कि० 9445, शि०९।८५, रस की पुष्टि करते हैं। इनकी संख्या तेंतीस या रत्न० 315 4. जालसाजी, चाल, धोखा-पंच 11 चौंतीस है, इनकी गणना के लिए दे० काव्य० 4, 120, 242 5. मिथ्यापन 6. व्युत्क्रम, वैपरीत्य। कारिका 31-34, सा० द० 169, या रस० प्रथम व्यवकलनम् [वि+अव+कल-+ ल्युट ] 1. वियोग आनन, तु० विभाव और स्थायिभाव की। 2. (गणि० में) घटाना, एक राशि में से दूसरी राशि व्यय i (चुरा० उभ० व्यययति-ते) 1. जाना, हिलना- कम करना। जुलना 2. व्यय करना, प्रदान करना, अर्पण करना / व्यवक्रोशनम् [वि+अव+क्रुश्+ल्युट ] तू तू मैं मैं, ji (भ्वा० उभ० व्ययति ते) जाना, हिलना-जुलना। आपस में गालीनालौज। (चुरा० उभ० व्याययति-ते, व्यापयति .... ते भी) | व्यवछिन्न (भू० क. कृ०) [वि+अब+-छिद्+क्त ] 1. फेंकना, डालना 2. हाँकना। 1. काट डाला गया, चीरा गया, फाड़ा गया 2. वियुक्त, व्यय (वि.) [वि+5+अच] परिवर्तनीय, परिणाम विभक्त 3. विशिष्ट किया गया, विशिष्ट 4. अंकित, शील, विकारवान्तु० अव्यय, - यः 1. (क) हानि, विलक्षण-शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली लोप, विनाश-आपाद्यते न व्ययमन्तरायः कच्चिन्म --काव्या० 110 5. अवरुद्ध, बाधित / हर्षे स्त्रिविधं तपस्तत्-रघु० 5 / 5, 12 / 33, (ख) व्यवच्छेदः [ वि+अब+छिद्+घञ ] 1. काट डालना, लागत लगाना, त्याग-प्राणव्ययेनापि मया विधेयः फाड़ देना 2. विभाजन, वियोजन 3. चीर-फाड़ करना --मा० 4 / 4, कु० 3 / 23 2. रुकावट, अड़चन-रघु० 4. विशिष्टीकरण 5. विभेदक, विशिष्ट 6. वैषम्य, 15637, 3. क्षय, ह्रास, पराजय, अधःपतन 4. खर्च, वैशिष्ट्य 7. निर्धारण 8. बन्दूक दागना, तीर छोड़ना मूल्य, परिव्यय, विनियोग, प्रयोग, (विप० आय) 9. किसी पुस्तक का अध्याय या अनुभाग। -- आये दुःख व्यये दुःखं घिगर्थाः कष्टसंश्रया:--पंच० व्यवधा [ वि+अवधा +अ+टाप] 1. व्यवधायक श१६३, आयाधिक व्ययं करोति 'अपनी आय से 2. आड़, पर्दा, व्यंशन 3. छिपाव, दुराव / अधिक व्यय करता है'-रघु० 5 / 12, 15 / 3, मनु० व्यवधानम् [वि--अव+-धा+ल्युट ] 1. हस्तक्षेप, 9 / 11 5. अपव्यय, फिजूलखर्ची / सम०-पर अन्तःक्षेप, वियोग 2. अवरोध, दृष्टि से गुप्त रखना (वि.) मुक्तहस्त से खर्च करने वाला,--परामुख -दष्टि विमानव्यवधानमुक्तां पुनः सहस्राचिषि (वि०) कृपण, कंजूस, मक्खीचूस,- शील (वि.) संनिधत्ते रघु० 33144 4. छिपाना, अन्तर्धान अतिव्ययी, फिजूलखर्च,-शुसिः (स्त्री०) हिसाब 5. पर्दा, व्यंशन 6. ढकना, आवरण-कु. 3 / 44, चुकाना। 7. अन्तराल, अवकाश 8. (व्या० में) किसी अक्षर या व्ययनम् [ व्यय+ल्युट् ] 1. खर्च करना 2. बर्बाद करना, मात्रा का बीच में आ पड़ना। विनष्ट करना। व्यवधायक (वि.) (स्त्री०-यिका) [वि+अव+धा व्ययित (भू. क. कृ०) [व्यय+क्तु] 1. व्यय किया | ण्वुल ] 1. बीच में आ पड़ने वाला, आवरण, ढकने For Private and Personal Use Only