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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४८ ) (इस अर्थ में इसके रूप विकल्प से कर्ता० ब० ब०,। वाला, प्राज्ञ, दूरदर्शी,-नान्तरज्ञाः श्रियो जातु प्रियरासां अपा० और अधि० एक व० में 'सर्व' की भांति होते है) । न भूयते-कि. ११२४,-दिशा (अन्तरा दिक) इसलिए-अन्तरायां पुरि, अन्तरायै नगर्य,-रम् 1.(क.) परिधि का मध्यवर्ती प्रदेश या दिशा,-पु (पू) रुषः भीतर का, अन्दर का-लीयन्ते मुकुलान्तरेषु--रत्न० आन्तरिक मानब, आत्मा (मानव के अन्दर निवास १।२६, (ख.) छिद्र, सूराख 2. आत्मा, हृदय, मन- करने वाला देवता जो कि उसके सब कार्यों को देखता सदशं पुरुषान्तरविदो महेन्द्रस्य-विक्रम०३, 3. परमा- है)-प्रभवः मिश्रित जाति में जन्म लेने वाला,--स्थ त्मा, 4. अन्तराल, मध्यवर्ती काल या देश-अल्प- -स्थायिन,-स्थित (वि०) 1. आभ्यन्तरिक, आंतरिक, कुचान्तरा--विक्रम ४१२६, बृहद्भुजान्तरम्-रघु० अन्तहित 2. अन्तःक्षिप्तः, अन्तर्वर्ती। ३१५४, 'अन्तरे' का बहुधा अनुवाद किया जाता है-- अन्तरतः (अव्य०) [अन्तर+तसिल 1. भीतर, आंतरिक मध्य में, बीच में न मृणालसूत्रं रचितं स्तनान्तरे श० रूप में, मध्य, 2. के अन्दर (संब० के साथ)। ६।१७, 5. स्थान, जगह, देश-मृणालसूत्रान्तरमप्य- | अन्तरतम (वि०) [अन्तर+तमा अत्यन्त निकट, आंतलम्यम् कु. ११४०, पौरुषं श्रय शोकस्य नान्तरं दातु- रिक, निकटतम, घनिष्ठतम, सदशतम-मः उसी श्रेणी मर्हसि-रा० शोक मत करो,--अन्तरम्-अन्तरम्- का अक्षर। मृच्छ. रास्ता छोड़ो, 6. पहुंच, अन्दर जाना, प्रवेश, | अन्तरयः-रायः [ अन्तर+अय्+ अच् ] अवरोध, बाधा, कदम रखना-लेभेन्तरं चेतसि नोपदेश:-रघु०६।६६ रुकावट,-स चेत् त्वमन्तरायो भवसि च्युतो विधिः --- लब्धान्तरा सावरणेऽपि गेहे-१६।७, 7. अवधि (काल रघु० ३१४५, १४१६५, अस्य ते बाणपथवर्तिनः कृष्णकी), निदिष्ट अवधि,--मासान्तरे देयम्-अमर०, सारस्य अन्तरायौ तपस्विनौ संवत्ती-श० (पाठ०) इति तो विरहान्तरक्षमौ-रघु० ८५६, 8. अवसर, | अन्तरयति [ना० धा०-पर०] 1. बोच में डालना, हटाना, संयोग, समय-यावत्त्वामिन्द्रगुरवे निवे; तुमन्तरा-| स्थगित करना, भवतु तावदन्तरयामि-उत्तर०६, 2. न्वेषी भवामि-श०, ७,१. भेद (दो वस्तुओं के बीच). विरोध करना, 3. दूर हटाना, पीछे से धकेलना। (सबं० के साथ या समास में )-तव मम च समुद्र- अन्तरयण =अन्तरय पल्वलयोरिवान्तरम-मालवि० १, यदन्तरं सर्षप- अन्तरा (अव्य.) [अन्तरेति- इण---डा] 1. (क्रि० वि० के शैलराजयोर्यदन्तरं वायसवैनतेययो:-रा०, द्रुम सानुमता रूप में) (क) भीतर, अन्दर, भीतर की ओर (ख) किमन्तरम्-रघु० ८९०, 10. (गणित) भिन्नता, मध्य में, बीच में, त्रिशकुरिवान्तरा तिष्ठ-श० २, शेष, 11. (क०) भेद, अन्य, दूसरा, परिवर्तित, बदला रघु०१५।२०, (ग) मार्ग में, बीच में विलंबेथां च हुआ (रीति, प्रकार, ढंग आदि) (ध्यान रखिये इस भांतरा~महावीर० ७।२८ (घ) पड़ोस में, निकट ही, अर्थ में 'अंतर' सदैव समस्तपद का उत्तर पद रहता लगभग (ङ) इसी बीच में (च) समय समय पर, है तथा इसका लिंग वही बना रहता है—अर्थात् नपुं० यहाँ वहाँ, कभी कभी, कुछ समय तक, अब, अभी चाहे पूर्वपद का कुछ भी लिंग हो-कन्यान्तरम् -अन्तरा पितृसक्तमन्तरा मातृसंबद्धमन्तरा शुकनासमयं (अन्याकन्या), राजान्तरं (अन्यो राजा), गृहान्तरम् कुर्वन्नालापं----का० ११८, 2. (कर्म के साथ सं० अव्य. (अन्यद् गृहम्), इसका अनुवाद बहुधा 'अन्य' शब्द ! की भांति) (क) अन्तरा त्वां मां च कमण्डलु:-~-महा० से किया जाता है)-इदमवस्थान्तरमारोपिता- (ख) के बिना, सिवाय-नच प्रयोजनमन्तरा चाणक्यः श०३, परिवर्तित दशा, (ख) विविध, विभिन्न (ब. स्वप्नेपि चेष्टते-मुद्रा० ३। सम०-अंसः छाती,व० में प्रयुक्त)-लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु-श० भवदेहः,-भवसत्वम्-आत्मा या जीवात्मा, जो जन्म ४१२, 12. विशेषता, (विशिष्ट) प्रकार, विभेद, या और मरण की अवस्थाओं के बीच में रहता है,-दिश किस्म-ग्रीह्यन्तरेऽप्यणु:-त्रि०, मीनो राश्यन्तरे तद० दे०-अन्तर्दिश-वेदि:-दी (स्त्री) 1.स्तंभाश्रित वरांडा, 13. दुर्बलता, आलोच्य स्थल, असफलता, दोष, सदोष दहलीज, ड्योढ़ी 2. एक प्रकार की दीवार---रघु० स्थल,-प्रहरेदन्तरे रिपुं-शब्द०,सुजयः खलु तादगन्तरे- १२।९३,-शृंगम् (अव्य) सींगों के बीच में। कि. २५२, 14. जमानत, प्रत्याभूति, प्रतिभूति, 15. | अन्तरायः=अंतरयः तु. सर्व श्रेष्ठता,-गुणान्तरं वजति शिल्पमाघातुः-मालवि० | अन्तरालम् । [अन्तरं व्यवधानसीमाम् आराति गृह्मा.. ११६ (यह अर्थ ११ संख्यान्तर्गत से भी जाना जा अन्तरालकम् । अन्तर-+आ+रा+क रस्य लत्वम्] 1. सकता है), 16. वस्त्र (परिधान) 17. प्रयोजन, मध्यवर्ती प्रदेश, स्थान, या काल, अवकाश-दक्षिआशय (मल्लि-रघु. १६३८२) 18. प्रतिनिधि, णस्याः पूर्वस्याश्च दिशोरन्तरालं दक्षिणपूर्वा-सिद्धा, स्थानापत्ति, 19. हीन होना। सम-अपत्या अंतराले बीच में, के मध्य, के बीच, अवकाश के गर्भवती स्त्री, (वि.) अन्दर का रहस्य जानने समय, बाष्पांमः परिपतनोदगमान्तराले-उत्तर० ११३१, For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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