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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९५ ) 2. व्यक्ति, पुरुष (चाहे मनुष्य हो या स्त्री)- क्व वयं को सुख देना, लोकप्रियता का प्रसाद प्राप्त करना, क्व परोक्षमन्मयो मृगशावः सममेधितो जनः । श० | --खः 1. किंवदन्ती 2. बदनामी, लोकापवाद,-लोकः २।१८, तत्तस्य किमपि द्रध्यं यो हि यस्य प्रियो जनः ऊपर के सात लोकों में से पाँचवाँ, महर्लोक के ऊपर -उत्तर० २।१९, इसी प्रकार 'सखीजनः' सहेली, स्थित लोक,-वादः ('जनेवादः' भी) 1. समाचार, 'दासजनः' सेवक, 'अबलाजनः' आदि (इस अर्थ में जनश्रुति 2. लोकापवाद,-व्यवहार लोकप्रिय चलन, 'जनः' या 'अयंजन:' का प्रयोग बहुधा वक्ता के द्वारा -श्रुत (वि.) विख्यात, प्रसिद्ध,-श्रुतिः (स्त्री०) स्त्री या पुरुष दोनों के लिए एकवचन या बहुवचन किंवदन्ती, जनरव,-संबाध वि० घना बसा हुआ, में किया जाता है और उत्तम पुरुष भी प्रथम पुरुष के -स्थानम् दण्डक वन के एक भाग का नाम-रघु० रूप में प्रयुक्त होता है)-अयं जनः प्रष्टुमनास्तपोधने १२।४२, १३।२२, उत्तर० ११२८, २।१७। --कु० ५।४० (मनुष्य); भगवन्परवानयं जनः प्रति अनक (वि.) (स्त्री०---निका) [जन्+णिच+पवुल] कूलाचरितं क्षमस्व मे--- रघु०८1८१ (स्त्री), पश्यानङ्ग जन्म देने वाला, पैदा करने वाला, कारण बनने वाला शरातरं जनमिमं त्रातापि नो रक्षसि-नागा० १११ या उत्पन्न करने वाला; क्लेशजनक, दुःखजनक आदि, (स्त्री, ब०व०) 2. सामूहिक रूप में मनुष्य, लोग, --क: 1. पिता, जन्म देने वाला 2. विदेह या मिथिला संसार (ए. व. या ब०व० में)–एवं जनो गृह्णाति के प्रसिद्ध राजा, सीता का धर्मपिता। वह अपने -मालवि० १, सतीमपि ज्ञातिकुलकसंश्रयां जनोऽन्यथा प्रभूत ज्ञान, अच्छे कार्य और पवित्रता के कारण भर्तमती विशइते-श० ५।१७ 3. वंश, राष्ट्र, प्रसिद्ध था। राम के द्वारा सीता का परित्याग किये कबीला 4. 'महः' लोक से परे का संसार, देवत्व को जाने पर उन्होंने वैराग्य ले लिया, सुख और दुःख के प्राप्त मनुष्यों का स्वर्ग। सम.--अतिग (वि.) प्रति उदासीन हो गये और अपना सगय दार्शनिक असाधारण, असामान्य, अतिमानव,-अधिपः,-अधिनाथः चर्चा में बिताया। याज्ञवल्क्य मुनि जनक के पुरोहित राजा,--अन्तः 1. वह स्थान जहाँ मनुष्य नहीं रहते, और परामर्श दाता थे। सम०-- आत्मजा,--तनया, वह स्थान जो बसा हुआ नहीं है 2. प्रदेश 3. यम का -नन्दिनी,-सुता जनक की पुत्री सीता के विशेषण । विशेषण, अन्तिकम् गुप्त संवाद, कान में कहना या जनङ्गमः [ जनेभ्यो गच्छति बहिः, जन+गम्+खच्, एक ओर होकर कहना (अव्य०) एक ओर को शुभागमः ] चाण्डाल। (नाटकों में)-सा० द. रंगमंच के निदेश की परि- जनता [जनानां समूहः-तल] 1. जन्म 2. लोगों का भाषा इस प्रकार बतलाता है :-त्रिपताकाकरेणान्या- समूह, मनुष्य जाति, समुदाय-पश्यति स्म जनता नपवातिराकथाम, अन्योन्यामंत्रणं यत् स्याज्जनान्ते दिनात्यये पार्वणी शशि दिवाकराविव-रघु० ११३८२, तज्जनान्तिकम, ४२५,-अर्दनः विष्णु या कृष्ण का १५।६७, शि० ९।१४। विशेषण, अशनः भेडिया,-आकीर्ण (वि.) लोगों जनन (वि.) [ जन+ल्य टु ] पैदा करने वाला, उत्पन्न से ठसाठस भरा हुआ, जनसंकुल,-आचारः लोकाचार, करने वाला आदि,-नम् 1. जन्म, पैदा होना,लोकरीति,-आश्रमः धर्मशाला, सराय, पथिकाश्रम, यावज्जननम् तावन्मरणम् - मोह० १३ 2. पैदा करना, -आधयः मण्डप, शामियाना,-इन्द्रः,-ईशः,-ईश्वरः उत्पादन करना, सृजन करना-शोभाजननात्-कु. राजा, नष्ट (वि०) लोकप्रिय (ष्ट:) एक प्रकार १४२ 3. साक्षात्कार, प्रत्यक्षीकरण, उदय 4. जीवन, की चमेली,--उदाहरणम् यश, कोर्ति, ओघः जनसंमर्द, अस्तित्व-यदैव पूर्वे जनने शरीरं सा दक्षरोषारसुदती भीड़, जमघट,-कारिन् (पुं०) अलक्तक,--चक्षुस् ससर्ज-कु० ११५३, श० ५।२, गोत्र, कुल, वंशपरंपरा। (नपुं०) 'लोकलोचन' सूर्य,-त्रा छाता, छतरी,-देवः | जननिः (स्त्री०) जिन्+अनि] 1. माता 2. जन्म । राजा,-पदः 1. जनसमुदाय, वंश, राष्ट्र- याज्ञः | जननी [जन्+णि+अनि+ङीप्] 1. माता 2. दया, ११३६० 2. राजधानी, साम्राज्य, बसा हुआ देश | दयालुता, करुणा 3. चमगादड़ 4. लाख । -जनपदे न गदः पदमादधौ-रघु० ९।४, दाक्षिणात्ये | जनमेजयः [जनान् एजयति इति जन् + एज+णिच् +खश, जनपदे-पंच०१, मेघ० ४८ 3. देश (विप० पुर, ममागमः] हस्तिनापुर का एक प्रसिद्ध राजा, परीक्षित नगर)-जनपदवधूलोचनैः पीयमानः-मेघ० १६ का पुत्र और अर्जुन का पोता (जनमेजय का पिता 4. जनसाधारण, प्रजा (विप० प्रभु) 5. मनुष्यजाति, साँप के काटे जाने से मरा, इसलिए जनमेजय ने उस -परिन् (पुं०) किसी जनसमुदाय या देश का राजा, क्षति का प्रतिशोध करने के लिए संसार से सर्पजाति -प्रवाः 1. अफ़वाह, किंवदन्ती, जनश्रुति 2. लोका- का समूल विनाश करने के लिए दृढ़ संकल्प किया। पवाद, बदनामी,-प्रिय (वि.) 1. लोक हितेच्छु तदनुसार एक सर्पयज्ञ का आरंभ किया गया जिसमें 2. सर्वप्रिय,-मर्यावा सर्वसम्मत प्रथा,-रजनम् लोगों तक्षक को छोड़ कर और सब सर्प जला दिये गये। For Private and Personal Use Only
SR No.020643
Book TitleSanskrit Hindi Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVaman Shivram Apte
PublisherNag Prakashak
Publication Year1995
Total Pages1372
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary
File Size37 MB
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