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मतिसरः [ अति + सृ+अच्] 1 आगे बढ़ने वाला 2 नेता अतिसर्गः [ अति + सृज् + ञ ] 1 स्वीकार करना,
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देना - रघु० १०/४२, 2 अनुमति देना (जो इच्छा हो) 3 (नौकरी से ) पृथक् करना, कार्यभार से मुक्त करना। मतिसमं [ अति + सृज् + ल्युट् [ 1 देना, स्वीकार करना, सौंपना कु० ३।३२, 2 उदारता, दानशीलता 3 वघ करना 4 वियोग ।
अतिसर्व (वि० ) [ प्रा० स० ] सर्वोत्तम या सर्वश्रेष्ठ, र्वः परब्रह्म - अतिसर्वाय शर्वाय मुग्ध० । अति- (तो) - सारः [ अतिसृ + णिच् +अच् ] पेचिश, मरोड़ों के साथ दस्तों का आना ।
अति (सी) सारिन् (पुं० ) [ अत्यंत सारयति मलं] अतिसार नाम का रोग जिसमें बारबार शौच जाना पड़ता है; (वि०) -अति (ती) सारकिन् (वि० ) [ अतिसारो यस्यास्ति इनि, कुक् च ] अतिसार रोग से पीड़ित, पेचिश रोग से ग्रस्त । अतिस्नेव प्रा० स०] अत्यधिक अनुराग; हः पापसंकीश; बुराई की आशंका में प्रवण होता है । अतिस्पर्श: [ प्रा० स० ] अर्धस्वर तथा स्वरों के लिए पारिभाषिक शब्द ।
अतीत (वि० ) [ अंति + इ + क्त ] 1 पार गया हुआ 2. आगे बढ़ने वाला, गत, बीता हुआ आदि; मृत संख्यातीत अगण्य | अतीन्द्रिय (वि० ) [ प्रा०स०] ज्ञानेन्द्रियों की पहुंच के बाहर, -य: आत्मा या पुरुष (सांख्य दर्शन ) ; परमात्मा; -यं 1. प्रधान या प्रकृति (सा० द० ) 2. मन ( वेदान्त) | अतीव (अव्य० ) [ अति + इव] खूब, अधिकता के साथ, बहुत अधिक, बिल्कुल, बहुत हो, पीडित, हृष्ट आदि । अतुल (वि० ) [ न० त०] अनुपम, बेजोड़, अद्वितीय, अतुलनीय, लः 'तिल' का पौधा, तिल ।
परे गया हुआ, परे जाने वाला, संख्यामतीत या
अतुल्य (वि० ) [ न० त० ] अनुपम, बेजोड़ । अतुवार (वि०) [न० त०] जो ठंडा न हो । सम० -करः सूर्य; इसी प्रकार अतुहिनकर: रश्मि, धामन् रुचि आदि ।
अतुष्या [ न० त०] थोड़ा सा घास । तेजस (वि० ) ( न० ब० ] 1. जो चमकीला न हो, धुंधला 2. दुर्बल, निर्बल 3. निरर्थक, इसी प्रकार अतेजस्क, मतेजस्विन्; -स् (पुं०) [न० त०] धुंधलापन, छाया, अंधकार ।
अत्ता [ अत् + तक् + टाप् ]1. माता 2 बड़ी बहन 3.
सास ।
अति: (स्त्री० ) अत्तिका [ अत् + क्तिन्, स्वार्थे कन् च ] बड़ी बहन आदि । अम:, अस्तु: [ अतति सततं गच्छति - अत् + न, नु वा ] 1. हवा 2. सूर्य ।
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अत्यग्निः [ प्रा० स० ] पाचन शक्ति की बहुत अधिकता । अत्यग्निष्टोमः [ प्रा० स० ] ज्योतिष्टोम यज्ञ का दूसरा ऐच्छिक भाग ।
अत्यंकुश ( वि० ) [ प्रा० स०] निरंकुश, नियन्त्रण में रहने के अयोग्य, उच्छृंखल जैसे हाथी ।
अत्यन्त ( वि० ) [ अतिक्रान्तः अन्तम् सीमाम्-- प्रा० स० ]
1. अत्यधिक, अधिक, बहुत बड़ा, बहुत बलवान् "वैरम् - बड़ी शत्रुता, इसी प्रकार मंत्री 2. संपूर्ण, पूरा, नितांत 3. अनन्त, नित्य, चिरस्थायी; किवा तवात्यन्तवियोगमोघे हतजीविते रघु० १४/६५ ; कस्यात्यन्तं सुखमर्पिनतम् -- मेघ० १०९ -तं ( अव्य ० ) 1. अत्यधिक बहुत अधिक, 2. हमेशा के लिए, आजीवन, जीवनभर । सम० - अभाव: नितान्त या पूर्ण सत्ताहीनता, नितान्त अनस्तित्व, गत ( वि० ) सदा के लिए गया हुआ, जो फिर कभी न आवेगा, कथमत्यन्तगता न मां दहे: - रघु० ८/५६, गामिन् ( वि० ) 1 बहुत अधिक चलने वाला, बहुत तेज या शीघ्र चलने वाला, 2. अत्यधिक, अधिक; - वासिन् (पुं०) जो विद्यार्थी की भांति लगातार अपने गुरु के साथ रहता है; संयोगः 1. घनिष्ट सामीप्य, अबाध नैरन्तर्य; कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे - ; 2. अवियोज्य सहअस्तित्व । अत्यन्तिक ( वि० ) [ अत्यन्त + ठन् ] 1. बहुत अधिक या बहुत तेज चलने वाला 2. बहुत निकट 3. जो समीप न हो, दूर, -कं घनिष्ट सामीप्य, अव्यवहित पड़ोस या अत्यंत समीप होना ।
अत्यन्तीन ( वि० ) [ अत्यंत + ख ] 1. बहुत अधिक चलने
वाला, बहुत तेज चलने वाला - लक्ष्मी परंपरीणां त्वमत्यन्ती नत्वमुन्नय-- भट्टि० ।
अत्ययः [ अति + इ + अच्] 1 चला जाना, बीत जाना, काल 2. समाप्ति, उपसंहार, अवसान, अनुपस्थिति, अन्तर्धान 3. मृत्यु नाश 4, भय, चोट, बुराईप्राणात्यये च संप्राप्ते - या० १1१७९ 5. दुःख 6. दोष, अपराध, अतिक्रमण 7. आक्रमण, अभियान । अत्ययिक = दे० आत्ययिक |
अत्ययित ( वि० ) [ अत्यय + इतच् ] 1. बढ़ा हुआ, आगे निकला हुआ, 2. उल्लंघन किया हुआ, जिस पर अत्याचार किया गया है ।
अत्ययिन् ( वि० ) [ अति + इ + णिनि ] बढ़ने वाला, आगे निकलने वाला ।
अत्पर्य (वि० ) [ प्रा० स०] अत्यधिक बहुत बड़ा, बेहद, चं ( क्रि० वि०) बहुत अधिक निहायत,
अत्यन्त ।
अत्मह्न (वि० ) [ प्रा० स० ] अवधि में एक दिन से अधिक रहने वाला ।
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