________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 1197 ) अनुभाग (घ) जाति इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में बारह (यह छन्द मात्राओं की संख्या से विनियमित मात्राएँ होती हैं, द्वितीय चरण में पन्द्रह तथा चतुर्थ किये जाते है)। चरण में अठारह मात्राएँ होती है। (अ) इस प्रकार के वृत्तों की अत्यन्त सामान्य प्रकार उदा. नारायणस्य सन्ततमृद्गीतिः संस्मृतिर्भक्त्या / 'आर्या' है। इसके नौ अवान्तर भेद बताये अर्चायामासक्तिर्दुस्तरसंसारसागरे तरणिः / / जाते हैं: -- (5) आर्यागीति पथ्या विपुला चपला मुखचपला जघनचपला च / / परि० आय प्राग्दलमन्तेऽधिकगरु तादक परार्धमार्यागीतिः। गीत्युपगीत्युद्गीतय आर्यागीतिर्नवैव वार्यायाः / / इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में बारह इन नो भेदों में से अन्तिम चार प्रकार ही मात्राएँ और द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में बीस प्रायः प्रयुक्त होते हैं, इसीलिए इनका उल्लेख मात्राएं होती है। किया जाता है। उदा० सवधूकाः सुखिनोऽस्मिन्नवरतममन्दरागतामरसदृशः। (1) आर्या नासेवन्ते रसवन्नवरतममन्दरागतामरसदृशः / / परि० यस्याः पादे प्रथम द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि।। शि० 4151 / अष्टादश द्वितीये चतुर्थ के पञ्चदश सार्या / / 04 / नोट-यह पांचों भेद कभी कभी गणयोजना में भी परि इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में बारह भाषित किये जाते हैं। मात्रायें होती हैं (ह्रस्व स्वर की एक मात्रा तथा (आ) वैतालीय दीर्घ की दो मात्रायें गिनी जाती है। दूसरे परि० षड़विषमेऽष्टौ समे कलास्ताश्च समे स्युनों चरण में अठारह तथा चौथे चरण में पन्द्रह मात्राएँ निरन्तराः / होती है। न समाऽत्र पराश्रिता कला वैतालीयेऽन्ते / उदा० प्रतिपक्षेणापि पति सेवन्ते भर्तृवत्सला: साध्व्यः / रलो गुरुः / / अन्यसरितां शतानि दि समद्रगाः प्रापयन्त्यग्धिम् / / यह चार चरण का श्लोक है। इसके प्रथम मालवि० 5 / 19 / तथा तृतीय चरण में चौदह लघु मात्राओं का गोवर्धन की समस्त 'आर्यासप्तशती इसी समय लगता है, और द्वितीय तथा तृतीय छन्द में लिखी गई है। चरण में सोलह मात्राओं का। पुनः प्रथम तथा (2) गीति तृतीय चरण में छः मात्राएँ होनी चाहिए। द्वितीय परि० आर्यापूर्वाधसमं द्वितीयमपि भवति यत्र हंसगते / तथा चतुर्थ चरण में आठ मात्राएँ और उसके छन्दोविदस्तदानीं गीति ताममृतवाणि भाषन्ते / / पश्चात् रगण (55) तथा लघु गुरु (15) होने इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में बारह चाहिए। आगे नियम इस बात की अपेक्षा करते मात्रायें, और दूसरे तथा चौथे चरण में अठारह है कि सम चरणों में सभी मात्राएँ ह्रस्व या दीर्घ मात्राएँ होती है। नहीं होनी चाहिएँ, इसके अतिरिक्त प्रत्येक सम उदा. पाटीर तव पटीयान् कः परिपाटीमिमामुरीकर्तुम् / चरण की (अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ तथा छठा चरण) यत्पिषतामपि नृणां पिष्टोऽपि तनोषि परिमल: मात्राएँ अगले चरणों (अर्थात् तृतीय, पंचम और पुष्टिम् // भामि० // 12 // सप्तम) से संयुक्त नहीं होनी चाहिए। उदा० कुशलं खलु तुभ्यमेव तद् परि० आर्योत्तरार्घतल्यं प्रथमार्षमपि प्रयक्तं चेत् / __ वचनं कृष्ण यदभ्यषामहम् / कामिनि तामुपगीति प्रतिभाषन्ते महाकवयः // उपदेशपराः परेष्वपि स्वविनाशाभिमुखेषु साधवः॥ शि०१६॥४१॥ इस छन्द के प्रथम तथा तृतीय चरण में (1) औपच्छन्दसिक बारह मात्राएँ, और द्वितीय तथा चतुर्ष चरण में परि० पर्यन्ते यो तथैव शेषमोपच्छन्दतिकं सुधीभिरुक्तम् / पन्द्रह मात्राएँ होती हैं। यह वैतालीय के समान ही है। इसमें प्रत्येक उदा० नवगोपसुन्दरीणां रासोल्लासे मुरारातिम् / परण के अन्त में रगण और ल, ग के स्थान में अस्मारयनुपगीतिः स्वर्गकुरङ्गीदृशां गीतेः / / रगण और यगण होने चाहिएँ। दूसरे शब्दों में (4) उगीति यह वैतालीय ही है, इसमें केवल प्रत्येक चरण के परि० आयसिकलखितये विपरीसे पुनरिहोद्गीतिः। मन्त में गुरु जोड़ा हुभा है। (3) उपगीत प्रयुक्तं चेत् कवयः // . For Private and Personal Use Only