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मन्त्रःब्राह्मणम् । वाकच मनश्चात्याच ब्रह्मच तानि प्रपद्येतानि मामवन्त मर्भवः स्वर ॐ महान्त मात्मान प्रपो॥५॥ विरूपाक्षोऽसि दन्तानि स्तस्य ते शय्या पर्से गृहा
अन्तरिक्षे विमित हिरण्ययं तद्देवाना.हृदयान्य: रक्षन्तु । ततश्च ‘भूः पृथिवी, 'भुवः” अन्सरौक्ष, 'स्व' द्यो एतत् त्रिलोक व्यापकम् ‘ओं' इत्ये तत् प्रतीकेन वाध्य 'महान्स' अतिमहत्-परिमाणम् अनन्तम् ‘ात्मानम्' आत्मस्वरूपम् 'प्र-- पो' प्रपन्नोस्मि ॥ ५ ॥
हे अग्ने ! त्वं 'विरूपाक्षः' अनियमित चक्षु विशिष्टः सहसाक्षः अनन्ताक्ष इति यावत् 'असि' भवसि, ‘दन्ताजि: व्य क्ला. दन्तश्च असि सर्व मुक्त्वात् । 'तस्य' एवम्भूतस्य 'ते' तव 'पणे जका कहान, पाभि छू (शिवि) छूट [पउदीक र [] परे ত্রিলােকব্যাপক, ও—এই প্রণব বাচ্য, অতি মহান্ আত্মার, अजमानम शेजछि ॥ ॥ | হে অয়ে! তুমি বিরূপাক্ষ (অনন্তনয়ন) এবং ব্যক্ত দন্ত হইতেছ, তােমার শয্যা শুষ্ক তৃণ পত্রাদিতে হইয়া থাকে, বিদ্যুৎ রূপে প্রকাশিত হওায় অন্তরীক্ষে হিরণয় গৃহ, বিশেষ রূপে যেন নির্মিত হইয়া আছে সেই হেতু তােমার গৃহস্থিত লৌহময় ঘটের মধ্যে ইন্দ্রাদি দেবগণের মন যেন স্থাপিত হইয়া আছে, তুমি অমুদ্রিত নয়ন রাক্ষসের অপেক্ষায় প্রমাদশূন্য ও সমধিক বলশালী হইতেছ ; তুমি বলের অবসাদ
५ - रुद्ररूपोऽनिर्देवता । निगदः । जपे विनियोगः । काम्यं षुच प्रपदस्त पश्च तेजश्चेति जपित्वा गों ४,५ ।
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