________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
रत्नाकर शतक
-
-
__अर्थ-मैं निश्चय से शुद्ध हूँ, ज्ञान, दर्शन से पूर्ण हूँ। मैं अपने आत्मस्वरूप में स्थित एवं तन्मय होता हुआ भी इन सभी काम, क्रोधादि श्रास्रव भावों को नाश करता हूँ। जीव के साथ कन्धरूप क्रोधादि आस्रव भाव क्षणिक हैं, विनाशीक हैं, दुःखरूप हैं, ऐसा समझ कर भेद-विज्ञानी जीव इन भावों से अपने को हटाता है। भेद विज्ञान द्वारा एक मैं शुद्ध हूँ, चैतन्य निधे हूँ, कर्मों से भेरा कोई सम्बन्ध नहीं, मेरा स्वाव त्रिकाल में भी किसीके द्वारा विकृत नहीं होता है। ____ मोह के विकार से उत्पन्न यह शरीर अथवा अन्य बाह्य पदार्थ जिनमें ममत्व बुद्धि उत्पन्न हो गयी है, मेरे नहीं हैं। पौद्गलिक भाव मुझसे बिलकुल भिन्न हैं, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं । मेरा स्वभाव इनके स्वभाव से विलक्षण है। मेरी शक्ति अच्छेद्य
और अभेद्य है। प्रत्यक्ष से अनन्त एवं अनुपम सुख का भाण्डार यह आत्मा प्रतीत हो रहा है, वर्णादि या रागादि इससे पृथक् हैं जैसे घड़े में घी रखने पर भी घड़ा घी का नहीं हो जाता है या घी घड़े का रूप नहीं धारण करता है; उसी प्रकार आत्मा के इस शरीर में रहने पर भी पुद्गल का कोई भी रूप, रसादि गुण इसमें नहीं श्राता है और न आत्मा का चैतन्य गुण ही इस शरीर में पहुँचता है। आत्मा और शरीर कर्मबन्धन के कारण साथ रहते हुए भी
For Private And Personal Use Only