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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विस्तृत विवेचन सहित कोई कोई प्रबुद्ध साधक विकारों को उत्पन्न करनेवाले कप को ही नष्ट कर देते हैं, पर यह काम सबके लिये संभव नहीं । इतना पुरुषार्थ तो गृहस्थ और त्यागो प्रत्येक व्यक्ति ही कर सकता हैं कि विकारों के उत्पन्न होने पर उनके आचीत न हो और पररूप समझ कर उनकी अवहेलना कर दे । कविवर दौलतराम ने राग और विराग का सुन्दर वर्णन किया है, उन्होंने समझाया है कि राग के कारण ही संसार के भोग विलास सुन्दर प्रतीत होते हैं, जब प्राणी उन्हें अपने से भिन्न समझ लेते हैं, तो उसे वे भोग विलास भयंकर विषैले साँप के समान प्रतीत होने लगते हैं । राग उदै भोग-भाव लागत सुहावने से, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २६ विना राग ऐसे लागेँ जैसे नागकारे हैं । For Private And Personal Use Only राग ही सौ पाग रहें तन म सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं । राग सौं जगत रीति झूठी सब सांच जाने, राग मिटे सूझत असार खेल सारे हैं । रागी विरागी के विचार में बड़ों ही भेद, जैसे भटा पथ्य काहु काहु को क्यारे हैं । अर्थ-मोह के उदय से यह जीव भोग विलास से प्रेम करता है, उसे भोग विलास अच्छे लगते हैं । राग रहित जीव
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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