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विस्तृत विवेचन सहित
उसके प्रत्येक विचार का प्रभाव स्वतः अपने ऊपर पड़ने के साथ कर्म वर्गणाओं- बाह्य भौतिक पदार्थों पर जो आकाश में सर्वत्र ब्याप्त हैं, पड़ता है जिससे कर्म रूप परमाणु अपनी भावनाओं के अनुसार खिंच आते हैं और आत्मा के साथ सम्बद्ध हो जाते हैं।
__ आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने इस कर्मबन्ध की प्रक्रिया का बड़े सुन्दर ढंग से वर्णन किया है--
विकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गला : कर्मभावेन ।। परिणममानस्य चितश्चिदात्मकै : स्वयमपि स्वर्भावैः।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म तस्यापि ॥ अर्थ-जीव के द्वारा किये गये राग, द्वेष, मोहरूप परिणामों को निमित्त पाकर पुद्गल परमाणु स्वतः कर्मरूप से परिणत हो जाते हैं। जीव अपने चैतन्य रूप भावों से स्वतः परिणत होता है, पुद्गल कम तो निमित्तमात्र हैं। जीव और पुद्गल परस्पर एक दूसरे के परिणमन में निमित्त होते हैं। अभिप्राय यह है कि अनादि कालीन कर्म परम्परा के निमित्त से आत्मा में राग-द्वेष की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन, वचन और काय में अद्भुत हलनचल न होता है, तथा गग द्वेष रूप प्रवृत्ति के परिमाण और गुगण
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