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रत्नाकर शतक
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दूसरी उत्पन्न हो जाती है, दूसरी के तृप्त होने पर तीसरी उत्पन्न हो जाती है, इस प्रकार मोह के निमित्त से पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी विषय ग्रहण की इच्छाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं। इससे इस जीव को व्याकुलता सदा बनी रहती है। भोग द्वारा इच्छाओं को तृप्त करने का प्रयत्न करना बड़ी भारी भूल है। भोग करने पर इच्छाएँ कभी भी शान्त नहीं हो सकती हैं।
चारित्र मोह के उदय से क्रोधादि कषाय रूप अथवा हास्यादि नोकषाय रूप जीव के भाव होते हैं, जिससे यह कुकार्यों में प्रवृत्ति करता है। क्रोध के उत्पन्न होने पर अपनी तथा पर की शान्ति भंग करता है, मान के उत्पन्न होने पर अपने तथा पर को नीच समझता है, माया के उत्पन्न होने से अपने तथा पर को धोखा देता है और लोभ के उत्पन्न होने से अपने तथा पर को लुब्धक बनाता है। इस प्रकार कषायों के निमित्त से यह जीव निरन्तर दुःख उठाता है, और इस दुःख को सुख समझता है।
जब समस्त दुखों के मूल मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के दूर होने पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र की प्राप्ति होती है तभी मानव शान्ति प्राप्त कर सकता है। इसलिये रत्नाकर कवि ने संसार के उक्त दुःख को दूर करने के लिये रत्नत्रय धारण करने का उपदेश दिया है। क्योंकि रत्नत्रय ही
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