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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ विस्तृत विवेचन सहित पराधीनता उसी समय दूर होती है। व्यवहार की दृष्टि से परमात्मा बनने में परमात्मा की भक्ति सहायक है। उनकी पूजा, गुण-स्तुत्ति जीवात्मा को साधना के क्षेत्र में पहुँचा देती है। निश्चय की दृष्टि से जीवात्मा को अन्य किसी के गुणों के स्तवन की आवश्यकता नहीं, उसे अपने ही गुणों की स्तुति करनी चाहिये। अपने भीतर छुपे गुणों को उबुद्ध करना चाहिये । जीव निश्चय से अपने चैतन्य भावों का ही करता है और चैतन्य भावों का ही भोक्ता है। कर्मों का कर्ता और भोक्ता तो व्यवहार की दृष्टि से है। अतः परमात्मा की शरण में जाना, पूजा करना आदि भी प्रारम्भिक साधक के लिये हैं; प्रौढ़ साधक के लिये अपना चिन्तन ही पर्याप्त है। नाना गर्भदि पुट्टि पुट्टि पोरमट्टे रूपु जोहंगळ । नानाभावदे तोट्ट तोट्ट नडेदें मेयमेच्चि दूटंगळं । नाना भेदोळुडुमुंडु तनिदें चिः सालदे कंडु मि । तेनय्या ! तळुमळपरे ? करुणिसा! रत्नाकराधीश्वरा ! ॥२३॥ हे रत्नाकराधीश्वर ! अनेक प्रकार के प्राणियों के कुक्षि में जन्म लेकर आया हूँ। नाना प्रकार के प्राकार और वेष को धारण किया है। शरीर के लिए नाना कार्य किये हैं, तथा आहारादि को खाते-खाते तृप्त हो गया हूँ। तो भी For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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