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विस्तृत विवेचन सहित
नहीं है और न यह किसी को सुख दुःख देता है, जीव स्वयं अपने अदृष्ट के अनुसार सुख, दुःख को प्राप्त करता है। जो जिस प्रकार के कृत्य करता है, कार्माण वर्गणाएँ उसी रूप में
आकर आत्मा में संचित हो जाती हैं, और समय आने पर शुभ या अशुभ रूप में फल भी मिल जाता है। जब जीव स्वयं ही कर्ता और फल का भोक्ता है तो फिर अपनी रक्षा के लिये भगवान की प्रार्थना क्यों की गयी है ? भगवान तो किसी को सुख, दुःख देता नहीं, और न किसीसे वह प्रेम करता है । उसकी दृष्टि में तो पुण्यात्मा, पापात्मा, ज्ञानी, मूर्ख, साधु, असाधु सभी समान हैं। फिर प्रार्थना करनेवाले से भगवान प्रसन्न क्यों होगा ? वीतरागी प्रभु में प्रसन्नता रूपी प्रसाद संभव नहीं। जैसे वीतरागी प्रभु किसी पर नाराज नहीं हो सकता है, उसी प्रकार किसी पर प्रसन्न भी नहीं हो सकेगा। अतः अपनी रक्षा के लिये भगवान को पुकारना कहाँ तक संभव है ? ____ इस शंका का समाधान यह है कि भगवान की भक्ति करने से मन की भावनाएँ पवित्र होती हैं, भावनाओं के पवित्र होने से स्वतः पुण्य का बन्ध होता है ; जिससे जीव का उद्धार कुपति से हो जाता है। वास्तव में भगवान किसी का कुछ भी उपकार नहीं करते और न किसीको किसी भी तरह की सहायता देते
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