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रत्नाकर शतक
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श्राचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के गुणों का स्तवन, वन्दन और
अर्चन करना चाहिये ।
पडेदत्तिल्लवे पूर्वदोळ्धनवधूराज्यादि सौभाग्यमं - ।
पडेदें तन्नमकारदिं पडेदेनी संसार संवृद्धियं । पडेदत्तिल्ल निजात्मतत्वरुचियं तद्बोध चारित्रं । पडेदागळे मुक्तियं पडेयेने रत्नाकरावीश्वरा ! ||२०|| हे रत्नाकराधीश्वर !
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क्या पहले धन, स्त्री, राज्य इत्यादि वैभव प्राप्त नहीं थे ? और क्या इस समय वे वैभव प्राप्त हो गये हैं ? क्या उन वैभवों के चमत्कार से इस संसार को स्मृद्धि प्राप्त हो गई है ? पहले अपने आत्मस्वरूप का विश्वास नहीं हुआ आत्मा में लीनता की प्राप्ति नहीं हुई । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चरित्र की प्राप्ति से ही मनुष्य को अवश्य ही मोक्ष की प्रप्ति हो सकती है ॥ २० ॥
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विवेचन - इस जीव को अनादिकाल से ही धन, वैभव, राज्य आदि की प्राप्ति होती आई है । इसने जन्म जन्मान्तरों से इन्द्रियजन्य सुखों को भोगा है, पर इसे आज तक प्रप्ति नहीं हुई । जिस प्रकार अग्नि में ईंधन डालने से अग्नि प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार विषय-तृष्णा के कारण इन्द्रिय-सुखकी लालसा दिनोदिन बढ़ती जाती है। यह जीव इन विषयों से कभी तृप्त नहीं होता । जैसे कुत्ता हड्डी को चबाकर अपने मसूड़े से निकले