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रत्नाकर शतक
केवल कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध कहा जाता है, निश्चय से यह निर्लिप्त है। जब तक व्यक्ति कर्म कर उस कमे में आसक्त रहता है, उसका ध्यान करता रहता है, उसका बन्धक है । जिस क्षण उसे
आत्मा की स्वतन्त्रता और निर्लिप्तता की अनुभूति हो जाती है उसी क्षण वह कर्म बन्धन तोड़ने में समर्थ हो जाता है।
वैभव, धन-सम्पत्ति, पुरजन-परिजन आदि सभा पदार्थ पर हैं, अतः इनसे मोहबुद्धि पृथक् कर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु के गुणों का स्मरण करना निज कत्र्तव्य है। जब साधक अपने को पहचान लेता है, उसे आत्मा की वास्तविकता अनुभत हो जाती है तो वह स्वयं साधु, उपाध्याय,
आचाय, अहेन्त और सिद्ध होता चला जाता है। आत्मा की प्रसुप्त शक्तियाँ अपने आप आविर्भूत होने लगती हैं, उसकी ज्ञानशक्ति और दशन-शक्ति प्रकट हो जाती हैं । मन, वचन, काय की जो असत् प्रवृत्ति अब तक ससार का कारण थी, जिसने इस जीव के बन्धन को दृढ़ किया है, वह भी अब सत् होने लगती है तथा एक समय ऐसा भी आता है जब भोग प्रवृत्ति रुक जाती है, जीव की परतंत्रता समाप्त हो जाती है और निर्वाण सुख उपलब्ध हो जाता है।
संसार में आदर्श के बिना ध्येय की प्राप्ति नहीं होती है ।
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