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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० विस्तृत विवेचन सहित यद्यपि शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार की प्रवृत्तियाँ बन्धन का कारण हैं, दोनों ही संसार में भटकानेवाली हैं । जहाँ अशुभप्रवृत्ति प्रात्मा को निवृत्ति मार्ग से कोसों दूर कर देती है, वहाँ शुभप्रवृत्ति उसके पास पहुँचाने में मदद करती है। ____जो सुबुद्ध हैं, जिन्हें भेदविज्ञान हो गया है , जो पर पदार्थों की परता का अनुभव कर चुके हैं जिनका ज्ञान केवल शाब्दिक नहीं हैं और जो आत्मरत हैं वे आत्मा के भीतर सर्वदा वर्तमान रहनेवाले रलत्रय को प्राप्त कर लेते हैं ! ___मनुष्य का मन सबसे अधिक चंचल है, उसे स्थिर करने के लिये गुणस्तवन, रत्नत्रय के स्वरूप चिन्तन और निजपरिणति में लगाना चाहिये। स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग प्रभु की गुणस्तुति से किस प्रकार पुण्य का बध होता है, सुन्दर ढंग से बताया हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताजनेभ्यः ।। __ अर्थ----हे वीतरागी प्रभो ! आप न स्तुति करने से प्रसन्न होते हैं और न निन्दा करने से वैर करते हैं किन्तु आपके पुण्य गुणों की स्मृति पापों से हमारी रक्षा कर देती है, हमारे मन के पवित्र निष्कलंक, और निर्मल बना देती है। अतः रत्नत्रय को For Private And Personal Use Only
SR No.020602
Book TitleRatnakar Pacchisi Ane Prachin Sazzayadi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmedchand Raichand Master
PublisherUmedchand Raichand Master
Publication Year1922
Total Pages195
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati
File Size10 MB
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