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विस्तृत विवेचन सहित
धर्म भावना---धर्मोपदेश ही कल्याणकारी है, इसका मिलना कठिन है, ऐसा विचारना धर्म भावना है अथवा आत्मधर्म का चिन्तन करना धर्म भावना है।
तनुवे स्फाटिक पात्रेयिंद्रियद मोत्तं ताने सद्वति जीवनवे ज्योतियदर्के पज्जळिसुबा मुज्ञानमे रस्मियि ।। तिनितुं कूडिदोडेनो रस्मियोदविंगें देव ! निन्नेन्न चिं
तनेगळ्नोडे घृतंबोलेण्णे बोलला! रत्नाकराधीश्वरा ! ॥१२॥ हे रत्नाकराधीश्वर !
इस शरीर की उपमा दीपक से दी जा सकतो है। इन्द्रियाँ इस दीपक की बत्ती हैं और सम्यग्दर्शन इस दीपक की लौ। इस दीपक का प्रयोजन क्या प्रकाश करना--भेद-विज्ञान की दृष्टि प्राप्त करना नहीं है ? क्या इस प्रकार का मेरा चिन्तन दीपक के स्नेह (तेल या घी) के समान नहीं है ? ॥१२॥
विवेचन----तत्त्व चिन्तन द्वारा भेदविज्ञान की दृष्टि उपलब्ध होती है। इस दृष्टि की प्राप्ति का प्रधान कारण रत्नत्रय है, यही रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र वास्तविक धर्म है। वस्तुतः पुण्य-पाप को धर्म, अधर्म नहीं कहा जा सकता है। मोह के मन्द होने से जीव जिनपूजन, गुरुभक्ति, एवं स्वाध्याय आदि में प्रवृत्त होता है, इससे पुण्यास्रव होता है; पर
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