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विस्तृत विवेचन सहित
विशेषताएँ होती हैं। कुछ कर्म ऐसे है जिनका फल जीव में होता है, कुछ का फल – विपाक शरीर में होता है और कुछ का इन दोनों में । कुछ कर्म ऐसे भी होते हैं जिनका फल किसी विशेष जन्म में मिलता है, तथा कुछ का किसी क्षेत्र विशेष में विपाकफल होता है। इस दृष्टि से जीव विपाकी, शरीर त्रिपाकी, भव विपाकी और क्षेत्रविपाकी ये चार भेद कर्मों के हैं।
उत्कर्षण-प्रारम्भ में कर्मों में पड़ी स्थिति-समय मर्यादा और अनुभाग -~-फलदान शक्ति के बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ के कारण कितनी ही बन्धी कर्म प्रकृतियों की स्थिति और फलदान शक्ति को बढ़ा लेता है। ___अपकर्षण---परुषार्थ द्वारा कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति को घटाना अपकर्षण है। यदि कोई जीव अशुभ कर्म बांध कर शुभ कर्म करता है तो उसके बन्धे हुई अशुभ कर्म की स्थिति और फलदानशक्ति कम हो जाती है, इसी का नाम अपकर्षण है। जब यही जीव उत्तरोत्तर अशुभ कर्म करता रहता है तो उसके बन्धे हुए अशुभ कर्म की स्थिति और फलदान शक्ति बढ़ जाती हैं। अभिप्राय यह है कि उत्कर्षण और अपकर्षण इन दो क्रियाओं के द्वारा किसी भी बुरे या अच्छे कर्म की स्थिति और फलदान शक्ति घटायी या बढ़ायी जा सकती है।
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