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रत्नाकर शतक
अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये मूढ़ जनों को संकट में डाल दूंगा, इत्यादि मनसूबे बांधना, दिन रात चिन्तवन करना मृषानन्द रौद्रध्यान है।
चोरी करने की युक्तियाँ सोचते रहना, परधन या सुन्दर परवस्तु को हड़पने की दिन रात चिन्ता करते रहना चौर्यानन्द नामक रौद्रध्यान है। सांसारिक विषय भोगने के लिए चिन्तन करना विषय भोगने की सामग्री एकत्रित करने के लिये विचार करना एवं धन-सम्पत्ति आदि को प्राप्त करने के साधनों का चिन्तन करना विषय संरक्षण नामक रौद्रध्यान होता है। आर्त और रौद्र दोनों ही ध्यान आत्म कल्याण में बाधक हैं। इनसे प्रात्मस्वरूप आच्छादित हो जाता है तथा स्वपरिणति लुप्त होकर परपरिणति उत्पन्न हो जाती है। ये दोनों ही ध्यान दुर्ध्यान कहलाते हैं, ये अनादि काल से संस्कार के बिना भी होते रहते हैं, अतः इनका त्याग करना चाहिये ।।
धर्मध्यान के चार भेद बताये हैं। जिनागम के अनुसार तत्त्वों का विचार करना आज्ञविचय; अपने तथा दूसरों के राग, द्वेष, मोह आदि विकारों को नाश करने का उपाय चिन्तन करना अपाय विचय; अपने तथा दूसरों के सुख-दुख देखकर कर्म प्रकृतियों के स्वरूप का चिन्तन करना विपाक विचय एवं लोक के स्वरूप का
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