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में शरीर 7 हाथ का होता है। कम होते होते अनुत्तर विमान में मात्र एक हाथ का होता है। नीचे के देवलोक के देवों के पास परिग्रह ज्यादा होता है, उस सामग्री के उपर मूर्छा भी बहुत होती है। जबकि उपर क्रमशः कम होते होते अनुत्तर में परिग्रह एकदम कम हो जाता है। फिर भी सुख की मात्रा बढ़ती जाती है। नीचे के देवों में अहंकार बहुत ही होता है, इस कारण से झगड़े इर्ष्यादि का प्रमाण भी ज्यादा ही होता है। जब कि उपर के देवों में अहंकार घटता जाता है। अंहकार घटने से इर्ष्या-कलह इत्यादि दोष भी कम होते जाते हैं। क्योंकि इर्ष्या, कलह, झगड़े का जन्मस्थल अहंकार ही है। अहंकार नामशेष हो जाय तो इर्ष्या काहेकी? और झगड़ा काहेका? अहंकार ही सभी पापों का बाप है। “पाप मूल अभिमान" आनंदघनजी महाराज के मन में एक दिन लग गया। वे जब गोचरी निकले तब उनके मुँह से ये शब्द फुट पडे कि भटकत द्वार-द्वार औरन के कूकर आशाधारी। प्रभु! ये तेरा दास, साधु रोटी के टुक्कड़ के लिए कुत्ते की तरह कब तक किसी और की आशा लिए दिन के बारह बजते ही घर-घर धर्मलाभ धर्मलाभ कहता हुआ घूमता फिरेगा। प्रभु! तुम ही मुझे इस दसा से विमुक्त करो। निःस्पृहत्त्वं, महा-सुखं, भीख वही मांगता है जो भिखारी है। पेट की भूख तो सीमित है परन्तु मन की भूख की कोई सीमा नहीं हैं।
एक फकीर का किसी सम्राट के साथ घनिष्ट संबंध था। फकीर हकिकत में मस्त मौला फकीर था। छोटी सी कुटिया में भी वह मस्ती से निजानंद में रहता था। एक दिन किसी यार दोस्त ने फकीर को आग्रह करते हुए कहा, साहब! आपकी सम्राट तक पहुँच है तो कम से कम अपने रहने के लिए एक पक्का मकान तो बनवा दो। फकीर ने कहा, आज तक मैंने सम्राट से कभी कुछ मांगा नहीं हैं। मुझे तो खुदा ने जो दिया है काफी है, उसी में संतोष है। मित्र ने कहा, यार! तेरी बात तो ठीक है, परंतु जब सम्राट से तुम्हारा इतना अधिक घनिष्ट संबंध है तो कम से कम इतना कार्य तो तुम्हें करवाना ही चाहिए। फकीर बोला अच्छा तुम्हारा जब इतना अग्रह है तो मैं कल सम्राट के पास जाऊंगा। दूसरे ही दिन फकीर मध्यान्ह के समय सम्राट के महल की
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