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का बकवास ।
आलापैर्दुर्जनस्य न द्वेष्यम् “दुर्जन के बकवास से क्रोधित न होना । "
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बहुत बार कितनेक गुणीयल सज्जन सोचते हैं कि हम किसी का कुछ भी बिगाड़ते नहीं । हो उतना भला ही करते हैं फिर भी लोग अपने पीछे क्यों पड़ जाते हैं? परन्तु ऐसे सज्जन यह भूल जाते हैं कि आप गुण वैभव में आगे बढ़ चूके हैं यही आपके पीछे पडे / लगे हुए लोगों को अच्छा नहीं लगता। आप अन्य से जरा उपर उठे यही आपकी भूल! आप यदि उनकी तरह रहते तो कोई आपके पीछे नहीं पडता। कई लोग दुर्जनों की टीका से डरकर सत्कार्यों को छोड़ देते हैं उन्होने अभी दुनिया का स्वभाव जाना नहीं है। खुद की प्रशंसा से ही वो डर गये हैं। टीका को एक प्रकार की प्रशंसा ही समझ लें तो सज्जन कभी अपने कार्यों को छोड़ेंगे नहीं। हकिकत में आपके कार्यों की टीका परोक्ष रूप में आपकी प्रशंसा ही है। लोग इतने निठल्ले नहीं है कि फिजुल के कार्यो की टीका करते रहें। इतना समय किसके पास है? समझदार सज्जनों को खुश होना चाहिए। दुर्जनों का बकवास सुनकर ऐसे बकवास से ही आत्मतेज बढ़ता हो तो उसमें नाराज होने की बात ही कहाँ रही? यदि आपके कार्य की दुर्जन भी टीका न करता हो तो सोचना कहीं भूल तो नहीं हुई न? मेरा कार्य तो गलत नहीं है न? गलत कार्य की दुर्जन कभी टीका नहीं करते। वो तभी गुस्सा होते हैं। जब अच्छे कार्य से समाज में आपकी प्रशंसा हो रही हो । यही बात उनसे बर्दास्त नहीं होती। हमसे कोई आगे कैसे निकल सकता है? हम वहीं रह जाय और दूसरा आगे बढ़ चले ये हो ही कैसे सकता है? हम पत्थर रह जाये और तुम हीरे बन जाओ। हम पीतल ही बने रहे और तुम सोना / कंचन बन जाओ हम कलीयाँ न बन सके और तुम फूल बन जाओ, नहीं नहीं ऐसा मैं देख नहीं सकता। फिर तुम्हे पत्थर, पीतल और कली बनाकर ही छोडेंगे। ये है दुर्जनों
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ये दुनिया का स्वाभाव है आप फिक्र मत करो। दुर्जन तो आपके लिए
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