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खोजने की आदत नहीं है परन्तु अब तक हमारी आदत दोषों को ढूंढ़ने की रही है। जिस प्रकार समुद्र खारे जल से भरा होता है, परन्तु उसमें भी रत्न पाए जाते हैं, उसी के कारण वह रत्नाकर कहलाता है। रत्नों की प्राप्ति सागर से होती है परन्तु कोई आदमी समुद्र के खारे जल से घृणा करता है तो वह रत्नों को नहीं पा सकता है। जो आदमी समुद्र के खारे जल की उपेक्षा कर के मेहनत/प्रयत्न करता है, वही रत्नों को हासिल कर सकता है। उसी तरह यह संसार दोषों की खान है। दोषों की खान रूप इस संसार में गुणवान मनुष्य, समुद्र में रत्नों की तरह विरले ही मिलते है। जो व्यक्ति अन्य में रहे दोषों की उपेक्षा करके, गुणीजनों के गुणों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है उसके गुणों को प्राप्त कर लेता है।
एक बार कृष्ण महाराजा अपनी राजसभा में बैठे हुए थे। उनके दिमाग में खयाल आया। मेरे इस नगर में कितने अच्छे और बुरे लोग है, उनकी सूचि/फेहरिस्त तैयार करवानी चाहिए। उसी वक्त धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसभा में कदम रखें अर्थात् प्रवेश किया। महाराजा कृष्ण ने कहा- युधिष्ठिर एक कार्य करना है। कहिए महाराज! युधिष्ठिर बोले । कृष्ण बोले यह पन्ना लो
और नगर में जाओं। इस नगर में जितने दुष्ट लोग हैं, उनके नाम लिखकर ले आओ। मुझे उन लोगों के नाम चाहिए। कृष्ण महाराजा की आज्ञा/आदेश सुनते ही युधिष्ठिर ने पन्ना उठाया हाथ में लिया और नगर की और चल दिये। कुछ देर बाद राजसभा में दुर्योधन ने प्रवेश दिया। महाराजा ने कहा दुर्योधन एक काम करना है। फरमाइये महाराज! सेवक सेवा में तत्पर है। दुर्योधन का उत्तर था। कृष्ण महाराजा ने कहा लो यह पन्ना और नगर में जितने भी गुणी-सज्जन व्यक्ति है उन लोगों के नाम लिखकर ले आओ मुझे उनके नाम चाहिए। पन्ना हाथ में लेकर दुर्योधन ने भी विदाई ली। युधिष्ठिर सारे नगर में घूम गये, परन्तु उन्हे एक भी बुरा/खराब व्यक्ति नजर नहीं आया। हर व्यक्ति में उनको कुछ न कुछ अच्छाई-गुण दिखाई दे रहे थे। इधर दुर्योधन भी नगर में घुम रहा था परन्तु उसे एक भी उत्तम सज्जन आदमी-गुणी व्यक्ति दिखाई
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