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कुछ कहना ही नहीं? किसी को हित शिक्षा भी नहीं देनी? किसी को रोकना ही नहीं। यहाँ रोकने की या हितशिक्षा की बात नहीं है। जो रोकने-टोकने पर भी या हितशिक्षा-सलाह देने पर भी अपनी सच्ची सलाह भी मानने को तैयार न हो, सुनने को भी तैयार ही न हो। तब क्या करें? तब सोचना कि भगवान महावीर की बातों को नहीं मानने वाले भी थे। उसमें खुद भगवान का जमाइ जमाली भी सामिल था तो मेरी हर बात कोई मान ही ले जरूरी तो नहीं। संसार की सभी आत्माएं एक ही साथ मोक्ष जाने वाली नहीं है। मेरा पुण्य या आदेयनामकर्म इतना जोरदार नहीं है कि सब मेरी बात का स्वीकार कर ही ले । अरे... तीर्थकर जैसे तीर्थकर का उत्कृष्ट पुण्य और पूर्वजन्म की सभी जीवों के उद्धार की उत्कृष्ट भावना होने पर भी सब को अपनी बात नहीं समझा सके थे या सब को तार भी नहीं सके थे। तो फिर मेरी क्या औकात? मैं तो एक साधारण इनसान से विशेष कुछ नहीं हूँ। उनको सुधारने के लिए मैं ऐसा दुर्ध्यान करूं ये मैने ठेका नहीं ले रखा है। इस तरह की विचारधारा से पापी के उपर भी समताभाव रख सकते हैं। हमारी बात स्वीकार ने योग्य या कितनी भी सही क्यों न हो अगर कोई न माने तो हमें उन पर क्रोध नहीं करना चाहिए बल्कि माध्यस्थ भावना को याद कर चिंतन करना चाहिए। माध्यस्थ भावना ऐसे लोगों के लिए ही है। ज्ञानियों ने ऐसा नहीं कहा कि अगर वो लोग तुम्हारी बातों का अस्वीकार करे तो उनका तिरस्कार करो- अपमान करो, उनको मारो पीटो। नहीं ऐसे संयोग में मैत्रीभावना के साथ माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। आज की कली आने वाले कल का फूल हो सकती है। आज का बीज आने वाले कल का वृक्ष हो सकता है। आज का पत्थर आने वाले कल की प्रतिमा हो सकती है। आज का सोना आने वाले कल का मुकट बन सकता है। आज का दूध आने वाले कल का मक्खन बन सकता है। वैसे आज का पापी आने वाले कल का प्रभु/परमात्मा हो सकता है। जिन का मैं तिरस्कार करता हूँ उन में से कोई तीर्थकर, गणधर आचार्यादि की आत्मा हो और मुझसे से भी पहले मोक्ष में जाने वाली हो। सिद्ध भगवंत भी जिनको स्व-साधर्मिक गिनते हो उन की
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