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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - आत्मनिग्रहः कार्य: "आत्म नियंत्रण करना" हमारे भीतर अनेक जन्मों से क्रोध-कषाय विषय वासना के कुसंस्कार अंदर पड़े हुए है। जैसे कम्प्युटर की छोटी सी दिखने वाली फ्लोपी हजारों Page की किताब का मेटर सुरक्षित रखती है। वैसे आत्मा में जनम-जनम के कुसंस्कार मौजुद है। निमित्त मिलते ही उदय में आते हैं। छोटे-मोटे निमित्त से ही वे संस्कार जाग्रत हो उठते हैं। जैसे पानी हिलाने से उसमें रहा हुआ कचरा उपर आ जाता है, वैसे ही किसी निमित्त से भीतर पड़े हुए कुसंस्कार बाहर आते है। उस समय आदमी सामान्यतः अपना विवेक और ज्ञान भूलकर पशुवत् आचरण करने लगता है। पेट्रोल स्पर्श करने में ठंडा लगता है, परंतु एक चिनगारी का स्पर्श होते ही भंकर आग पैदा हो जाती हैं, बस, इसी प्रकार वैराग्य व नित्य धर्मोपदेश श्रवण आदि से आत्मा में घर कर गए कुसंस्कार दब जाते हैं, किंतु ज्यों ही उन्हे निमित्त मिलता है, वे कुसंस्कार जाग्रत हो जाते हैं और आत्मा का भयंकर अधःपतन करने के लिए तैयार हो जाते है, अतः अपने जीवन को सुरक्षित रखने के लिए कुसंग व कुनिमित्त से सर्वथा दूर ही रहने का प्रयास करना चाहिए। क्रोध, लोभ, काम आदि के आवेग के समय जो स्व नियंत्रण कर सकता है। उतने अंश में मनुष्य कहा जाता है। आवेगों के समय जो नियंत्रण करता है वही मनुष्य है बाकि नियंत्रण रहित होने से मनुष्य पशु के बराबर ही गिना जाता हैं । कुत्ते को गुस्सा आता है तब वह गुर्राने लगता है। गाय, भैंस, बैल को गुस्सा आता है तो सींग लगाने दौड़ते है। सर्प को गुस्सा आता है तो फुत्कारता है। सभी तिर्यच/पशु आवेश के समय उस तरह का आचरण करने लगते हैं। जबकि मनुष्य की बात भिन्न है, अलग है। उसके पास विवेक शक्ति है, नियंत्रण शक्ति है। वह कुत्ते की तरह जब चाहे तब गुर्राता नहीं है अन्य प्राणियों की तरह भी नहीं करता है। वह अगर चाहे तो अपने आवेगों पर नियंत्रण कर सकता है। इस बात को ऐसे भी कह सकते है। जो -125 For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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