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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org अपने मुहँ से अपनी अंगुली पर थोड़ा सा थूक लिया और उसे अपने दूसरे हाथ में लगाया। देखते ही देखते उस थूक से स्पर्श हुई चमड़ी कंचन जैसी बन गई। उन मिथ्यादृष्टि देवों ने भी यह देखा तो वे भी भावपूर्वक उनके चरणों में झूक गए। देह में एक ओर भयंकर रोग और दूसरी और उनके रोगों को मिटाने की ऐसी अद्भूत आत्म लब्धि । फिर भी ये मुनि लब्धि का उपयोग देह रोग निवारण के लिए नहीं कर रहे है | गजब का सत्त्व है इनमें | सचमुच ! इनके सत्त्वगुण की प्रशंसा इन्द्र महाराजा ने की थी, वैसे ही सत्त्वगुण के धारक है ये। देवों ने अपना मूल रूप प्रगट किया और अपने अपराध की क्षमा याचना कर पुनः स्वर्ग लोग में चले गए। सनत्कुमार मुनि भी अत्यंत दृढ़ता पूर्वक तन में फैले हुए उन रोगों को समता पूर्वक सहनकर समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष में गए। उनके थुंक श्लेष्म आदि में रोग निवारण की शक्ति पैदा हो चूकी थी, परन्तु उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए लब्धि का लेशमात्र भी उपयोग नहीं किया । सम्यग् ज्ञान के प्रकाश में जब हम जगत के यथार्थ को देखते है, तब अपनी आत्मा में इस बाहय संसार के प्रति वैराग्य भाव पैदा हुए बिना नहीं रहता । एक जिज्ञासु ने रामजी से प्रश्न पूछा, वैराग्य यानी क्या ? माया यानी क्या? ज्ञान विराग अरूं माया । रामजी ने बहुत सुंदर जवाब दिया, छोटा सा जवाब था- मैं और मेरा । यह मालिकी ही माया है। जब मेरापन और तेरापन को मिटाओगे तो जीवन में वैराग्य का मंगलाचरण होगा। परमज्ञान का उदय होगा। यही ज्ञान तुम्हें वैराग्य के मार्ग में ले जाएगा। शास्त्रकार भगवंतों ने वैराग्य के तीन भेद भी बतलाएँ हैं, जिन में (1) दुःख गर्भित और (2) मोह गर्भित त्याज्य है जबकि ( 3 ) ज्ञान गर्भित वैराग्य उपादेय है। संसार के वास्तविक स्वरूप को जाने बिना एक मात्र संसार के बाहय कष्ट निर्धनता, तिरस्कार, अनादर, भूख आदि दुःखों को देखकर जिसे वैराग्य होता हैं, वह दुःखगर्भित वैराग्य कहलाता है । दुःखगर्भित वैराग्य भूख, प्यास, बीमारी तथा अपने कुटुम्ब के निर्वाह की चिंता आदि से ही होता है। यदि उसे अपनी 122 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only
SR No.020580
Book TitlePriy Shikshaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrasagar
PublisherPadmasagarsuri Charitable Trust
Publication Year2006
Total Pages231
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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