________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
लिए सनत्चक्री के महल में पहुँच गये। उस वक्त सनत्कुमार चक्रवर्ती स्नानागार में स्नान कर रहे थे। ब्राह्मणवेषी दोनों देव स्नानागार के करीब पहुँच गये और सनत्चक्री के अद्भूत-रूप लावण्य को निहारने लगे। सनत्चक्री ने उनसे पूछ लिया अरे भू देवों! केसै आना हुआ? दूर-सुदूर क्षेत्र में हमने आपके रूप की प्रशंसा सुनी है, अतः आपके रूप दर्शन के लिए ही हम आये है। आह! हमने जैसा सुना था वैसा ही अद्भूत आपका रूप लावण्य है। ब्राह्मणवेषी देवों ने कहा! अच्छा तुम मेरा रूप देखने को आए हो? अरे ब्राह्मणों! मेरा लावण्य देखना हो तो राजसभा में आना। गर्व के साथ सनत्चक्री ने कहा । अभी तो मैं नहा रहा हूँ मेरे शरीर पर कीमती अलंकार भी नहीं है। जैसी आपकी आज्ञा ऐसा कहकर दोनों ब्राह्मण बाहर आ गए। थोड़ी देर में स्नान विधि से निवृत्त होकर सनत्चक्री ने बड़े कीमति वस्त्र धारण किये। फिर रत्नजड़ित स्वर्ण आदि के अलंकारों से उन्होंने खुद को अलंकृत किया। अच्छी तरह से सज-धज कर वे राजसभा में प्रवेश कर रहे थे। छडीदार ने छडी पुकारी । महामंत्री, सेनापति, नगर शेठ और सभाजनों ने उनका भावभीना सत्कार किया। सनत्चक्री अपने सिंहासर पर आरूढ़ हुए। महामंत्री ने राजसभा की कार्यवाही शुरू की। महाराजा ने सभाजनों पर पैनी नजर डाली। वहाँ ब्राझणवेषी दो देव भी आये हुए थे। किन्तु महाराजा की
ओर नजर डालते ही उन्होंने अपना मुँह मोड़ लिया था । चक्रवर्ती ने इस विचित्र व्यवहार को देख लिया। वे तत्क्षण बोल उठे अरे ब्राह्मणों । तुम मेरे रूप को देखने के लिए बड़ी दूर से आए हो फिर अभी आंख मिचौली क्यों कर रहे हो? उन दोनों ने हाथ जोड़कर विनम्रता से कहा- राजन्! जिस रूप को देखने के लिए हम आए थे, वह अब देखने लायक नहीं रहा, वह रूप तो नष्ट हो चूका है। अगर आपको यकीन न हो तो अपने प्याले में यूंककर देख लिजिए । उनमें कितने कीड़े पैदा हो चूके है। चक्रवर्ती ने एक पात्र में यूंका। तत्क्षण उन्हें उसमें अनेक कीडे दिखाई दिए । रूप का अभिमान एक ही पल में गल गया और सोचने लगे, इस देह का रूप इतना विनश्वर! मेरी काया
[120
-
For Private And Personal Use Only