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कबीर आपटगाइए, ओरनठगिया कोई।
आप ठग्या सुख उपजे, और टग्या दुःख होई।। दम्भपूर्वक जीना और रहना उचित नहीं, क्योंकि दम्भ से धर्म फलिभूत नहीं होता। शास्त्रकार कहते हैं कि दम्भरहित सरल मनुष्य की अल्पसत्क्रिया भी कर्मों का आंशिक क्षय करने में समर्थ बन जाती है। दम्भ मुक्तिरूपी लता को जलाने के लिए आग के समान है। दम्भ धर्मरूपी चन्द्रमा को ग्रसकर मलिन करने वाले राहु के समान है तथा दुर्भाग्य वृद्धि का कारण है और दम्भ आध्यात्मिक सुख को रोकने के लिए अर्गला के समान है। दम्भ ज्ञानरूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र के समान है। दम्भ बुराईयों-व्यशनों का मित्र है, दम्भ व्रतरूपी लक्ष्मी को चोरने (हरने) वाला चोर है। जिसने दम्भ का त्याग नहीं किया, फिर व्रत ग्रहण करने या विविध तप-जप करने से भी क्या लाभ? जैसे अन्धे आदमी के लिए दीपक और दर्पण किस काम के? अंधे के लिए दीपक
और दर्पण दोनों ही निरूपयोगी हैं, उसी तरह दम्भी के लिए व्रत, तप, जपादि किसी काम के नहीं है, निरर्थक है। जिस प्रकार बहुमूल्य रत्न में जरा-सा दाग (जर्क) लगा हो तो वह मूल्यहीन हो जाता है उसी तरह साधक कई धर्माराधनाएँ करता हो विविध क्रियाएँ करता हो, लेकिन उसके जीवन में दम्भरूपी दाग हों तो उसकी मोक्षलक्षी सभी आराधनाएँ और क्रियाएँ दूषित हो जाती है, निष्फल और निकम्मी बन जाती है। दम्भ को त्यागना कितना कठीन है, उपाध्यायजी महाराज कहते है। टेस्टफुल भोजन की रस-लोलुपता छोड़ना आसान है। काम-भोगों को भी आसानी से छोड़ा जा सकता है, शरीर के श्रृंगार छोड़ने भी सरल है, लेकिन दम्भ का त्याग करना बहुत ही कठीन है। अपने दोषों/भूलों को छिपाने वाले लोग यों सोचते हैं कि ऐसा करने से लोगों में हमारी प्रतिष्ठा, पूजा और बड़ाई होगी। हमारा गौरव बढ़ेगा, लेकिन वास्तव में बुद्धू इस दम्भ से ही विडम्बना और फजीहत को निमंत्रण देते है। अपनी आत्म प्रशंसा के लिए अपने दोषों को छिपाने वाला मनुष्य सोचता है कि मैं दम्भपूर्वक अपने दोषों को ढंक लूंगा, जिससे गुणीजनों की तरह मेरी भी प्रसिद्धि हो
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