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संबंध के बाद ही पता चला कि ये वचन नहीं अपितु अंगारे हैं। कई स्त्रियाँ ऐसी होती हैं, जिनके शब्द कांटों के समान होते है। उनकी कर्कशवाणी वातावरण में कलह पैदा कर देती है। कुछ लोगों के वचन इतने निष्ठूर होते है कि सामने वाला जीते जी मर जाता है, तो कई लोगों के वचन में अर्थात् बात-बात में निंदा का रस घुला होता है। जब-जब हम अप्रिय अहितकर और असत्य वचन बोलते है तब-तब माँ सरस्वती का अपमान करते हैं, ऐसा बोलकर हम वाचिक रूप से अपवित्र बनते है। वाचिक पवित्रता प्रिय हितकर और सत्य वचन से प्राप्त कर सकते हैं। किन्हीं लोगों के वचन मजाक से भरपूर होते हैं, तो किन्हीं लोगों के वचन में अकारण ही असत्य का हलाहल भरा होता है। व्यक्ति खुद तो झूठ बोलता ही है साथ ही उस कली को भी गलत मोड़ देता है। जो उपवन की सुन्दरता बनने वाली है। झूठ जन्म की देन नहीं है बल्कि उन लोगों की है जो खुद कीचड़ में फँसे है और दूसरों को फँसाने के लिए भी जाल फेंक रखा है। पता होगा, बालक सत्य का रूप कहा गया है।
वास्तव में शिशु कभी असत् का भागीदार नहीं होता । अभिभावक ही उसे असत के दाँव पेच लड़ाना शिखा देते है। वे ही बच्चों को झूठ बोलने के संस्कार देते है। घर में टेलीफोन की घण्टी बजी। ढब्बू ने रिसीवर उठाया। फोन करने वाले आदमी ने ढब्बू से पूछा तुम्हारे पिताजी है? ढब्बू ने कहा जी, देखकर बताता हूँ। ढब्बू कमरे में गया। कहा पिताजी! सोहनराजजी (अंकल) का फोन आया है। आपके बारे में पूछ रहे हैं क्या जवाब दूं? पिताजी ने कुछ सोचा और कहा, कह दो घर में नहीं है। ढब्बू फोन के पास आया माउथपीस कान से लगाकर बोला, जी! पिताजी कह रहे है कि कह दो घर में नहीं है। वास्तव में लोग झूठ के इतने अभ्यस्त हो गये है कि उन्हें झूठ तो व्यावहारिक लगता है और सत्य अव्यावहारिक । मनोयोग, कपड़ा गंदा हो तो शोभास्पद नहीं होता , वैसे मन भी मलिन नहीं होना चाहिए । मनको स्वच्छ पवित्र बनाने के लिए शुक्लध्यान चाहिए, हम तन और धन को जितना संभालते है उतना मन को नहीं संभालते। शरीर गंदा, मेला होगा तो मोक्ष मिलेगा परंतु मन मेला होगा
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