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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मूर्ध्निमूलाधार हृद्य नेत्रत्रय भूमध्य श्रोत्रद्वयांस दूयष्टष्ठ जान द्वय नाभ्य् न्संन्यसेत्। पुनर्मूलमन्त्रेण व्याप्य पुनः खंड त्रयं मूलाधार हृद्य भ्रूमध्ये विन्यस्य मूलमन्त्रं मूर्ध्निविन्यस्य हस्त येपि बाहुमूलमध्यमणिबं घेषखंड त्रयं थ्थग्विन्यस्य मूल मन्त्रं करत लक्ष्ये विन्यस्य कवचायांगुलि षखंडन येणमध्यमादिक निष्ठान्त मंगुष्ठादित लान्तं ॥चष्टय स्त्रिन्यस्य मूलमन्त्र स्यांगऋषि दो देवतादि कविन्यस्य स कंक मनिलेप नामिति ध्यात्वा पुनः। आयु. धमुद्राः प्रदर्शयेत्। कों द्वेषान्म ने अंतु शायनमः । आंरागात्मनेपाशायनमः। दादी की लूं सः शब्दस्यर्शरूपरसगं धात्मभ्यः पंचबाणेभ्योनम आला ने इक्षुचापानम इलायुधमुद्राः प्रदर्श्य किरी टम करकुंडलमुद्राः परलोक प्रकारेण प्रदर्श पुनः कन्यासं कुर्यात् । तकारः । सकल ही अंनमः सकल ही मित्यादि वीडेन टिलामालकास्थानेषु विन्यस्य हमराही नमः हसक हल हींमि त्या दिमध्य मखंडे न पुटि लामार काम्पातेषुविन्यस्या कईलो मिसादिया नपुटित्वा मात्र का स्थानेषु विन्य कील डीएम कह सकती नमः कसलेही सरहमित्यादिसमस्तखं डेनपु दिलामारकास्थानेपुवियय सर्वमन्या दशविधमार कान्यासः। तखकारम्पर्द्धनं दुगुन For Private And Personal
SR No.020571
Book TitlePrapanchasara Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGiryanendra Saraswati
PublisherGiryanendra Saraswati
Publication Year
Total Pages755
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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