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लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
ई सग्गापवग्गमगं पढमं सयलाण कारणं देवं । णीसेसदुरिअदलणं परमगुरुं णमह जिणण(णा)हं ॥रहुतिलओ पडिहारो आसी सिरिलक्वणोति रामस्स । तेण पडिहारवन्सो समुण्णई एत्य सम्पत्तो ॥ विप्पो सिरिहरिअन्दो भज्जा आप्तित्ति खत्तिआ भद्दा । अणसु (१)
लिपिपत्र १७ वा. यह लिपिपल मोरपी ( काठियावाड़में) से मिले हुए राजा जाइंकदेवके गुप्त संवत् ५८५ के दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसमें 'व' और 'य' का कुछ भेद नहीं है.
दानपतकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तरः
पष्टिवरिष(वर्ष)सहस्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः । आछेत्ता [चा]नुमंता च तान्येव नरकं वसेत् ॥ स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेतु(तु) वसुंधरां । गवां शतसहस्रस्य हंतु : प्राप्नोति किल्विषं ॥ विंध्याटवीष्वतोया[सु] शुष्ककोटरवासिनः । महाहयो
लिपिपत्र १८ वां. यह लिपिपल राजा विजयपालके समयके [विक्रम संवत् १०१६ के अलवरके लेखकी दो छापोंसे तय्यार किया है, जिनमेंसे एक काव्यमाला संपादक पण्डित दुर्गाप्रसादजी( महामहोपाध्याय )ने वि० सं० १९४५ में भेजी थी, और दूसरी अलवरके पण्डित रामचन्द्रजीकी भेजी हुई फ़तहलालजी महतासे मिली. इसकी लिपि देवनागरीसे बहुत कुछ मिलती
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई स्वस्ति ॥ परमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीक्षितिपालदेवपादानुध्यातपरमभट्टारकमहाराजाधिराजपरमेश्वर श्रीविनयपालदेवपादा
(१) स्वर्गापवर्गमार्ग प्रथमं सकलाना कारण देव । निःशेषदुरितदलन परमगुरु' नमत जिननाथ रघुतिलक : प्रतिहार पासीत् श्रीलक्षमण इति रामस्य । तेन प्रतिहारवंभ : समु. न्नतिमत्र प्राप्त: । विप्र : श्रीहरिचन्द्रो भार्या पासीत् इति क्षषिया भद्रा । (२) इण्डियन एण्टिकरी ( मिल्द २, पृष्ठ २५८ के पासको मेंट),
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